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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
तिसही• आगली अवस्था प्रधान कार कहै ताकू द्रव्य कहिये । बहुरि वर्तमानमैं जो अवस्था होय ताकू भाव कहिये । ऐसें च्यार निक्षेपकी प्रवृत्ति है ताका कथन शास्त्रमैं भी लोककू समझावनेकू कियाहै, जो निक्षेपविधान करि नाम स्थापना द्रव्यकू भाव न समझनां, नामकू नाम समझनां, स्थापनाकू स्थापना समझनी, द्रव्यकू द्रव्य समझनां, भावकू भाव समझनां, अन्यक्रू अन्य समझे व्यभिचारनामा दोत्र आवै है ताके मेटनेंकू लोककू यथार्थ समझानेकू शास्त्रविर्षे कथन है सो इहां तैसा निक्षेपका कथन न समझनां, इहां तौ निश्चयनयकू प्रधानकरि कथन है सो जैसा अरहंतका नाम है तैसाही गुणसहित नाम जाननां, बहुरि स्थापनां जैसी जाकी देह सहित मूर्ति है सो ही स्थापना जाननी, बहुरि जैसा जाका द्रव्य है तैसा द्रव्य जाननां, बहुरि जैसा जाका भाव है तैसाही जाननां ॥ २८॥
ऐसैंही कयन आर्गे करिये है तहां प्रथमही नाम• प्रधान कार कहै.
गाथा-दसण अणंत णागे मोक्खो णटकम्मबंधेण ।
णिरुवम गुणमारूढो अरहंतो एरिसो होई ॥ २९ ॥ संस्कृत-दर्शनं अनंतं ज्ञानं मोक्षः नष्टाष्टकर्मबंधेन ।
निरुपमगुणमारुढः अईन ईदृशो भवति ॥ २९ ॥ __ अर्थ-जाकै दर्शन अर ज्ञान ये तो अनंत हैं धातिकर्मके नाशतें सर्व ज्ञेय पदार्थनिकू देखनां जाननां जाकै है, बहुरि नष्ट भया जो अष्ट कर्मनिका बंध ताकरि जाकै मोक्ष है, इहां सत्त्वकी अर उदयकी विवक्षा लेनी केवलीकै आठौंही कर्मका बंध नाही यद्यपि साता वेदनीयका बंध सिद्धांतमैं कया है तथापि स्थिति अनुभाग रूप नाही तातें अबंधतुल्यही
१-सटोक संस्कृत प्रतिमें 'दर्शने अनंत ज्ञाने ' ऐसा सप्तम्यंत पाठ है।