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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
छाया-ये दर्शनेषु भ्रष्टाः पादयोः पातयंति दर्शनधरान् ।
ते भवंति लल्लमकाः बोधिः पुनः दुर्लभा तेषाम् ॥१२ अर्थ-जे पुरुष दर्शनविर्षे भ्रष्ट हैं अर अन्य जे दर्शनके धारक हैं तिनिकू अपने पगनि पडाबैं हैं नमस्कारादि करावै हैं ते परभव विर्षे लूला मूका होय हैं अर तिनिकै वोधि कहिये सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी प्राप्ति सो दुर्लभ होय है ॥ १२ ॥ ___ भावार्थ-जे दर्शनभ्रष्ट हैं ते मिथ्यादृष्टी हैं अर दर्शनके धारक हैं ते सम्यद्गुष्टी हैं, सो मिथ्यादृष्टी होय करि सम्यद्गुष्टीनि” नमस्कार चाहैं हैं ते तीव्र मिथ्यात्वके उदयसहित हैं ते परभववि लूला मूका होय हैं, भावार्थ-एकेंद्रिय होय हैं तिनिकै पग नाही ते परमार्थतें लूला मूका हैं ऐसे एकेंद्रियस्थावर होय निगोदमैं वास करैं हैं तहां अनंतकाल रहैं हैं, तिनिकै दर्शन ज्ञान चारित्रकी प्राप्ति दुर्लभ होय है, मिथ्यात्वका फल निगोदही कह्या है । इस पंचम कालमैं मिथ्या मतके आचार्य बनि लोकनि विनयादिक पूजा चाहें हैं तिनिकै जानिये है कि त्रसराशिका काल पूरा हुआ अब एकेंद्रिय होय निगोदमैं वास करेंगे, ऐसैं जान्या जाय है ॥ १२ ॥ __ आगै कहैं है जो जे दर्शनभ्रष्ट हैं तिनिकै लज्जादिकतैं भी पगां पडै हैं ते भी तिनि सारिखे ही हैं;-- गाथा-जे वि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जगारवभयेण ।
तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं ॥१३॥ संस्कृत-येऽपि पतन्ति च तेषां जानतः लज्जागारवभयेन ।
तेषामपि नास्ति बोधिः पापं अनुमन्यमानानाम् ॥ _ अर्थ-जे पुरुष दर्शनसहित हैं ते भी दर्शनभ्रष्ट हैं तिनिकू मिथ्यादृष्टी जानते संते भी तिनिके पगां पड़ें हैं तिनिका लज्जा भयगारव करि