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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २०३ गाथा-आदर खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य ।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे ॥५८॥ संस्कृत-आत्मा खलु मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चरित्रे च।
आत्मा प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे ॥५८॥ अर्थ-भावलिंगी मुनि विचार है जो- मेरै ज्ञानभाव प्रगट है ताविर्षे आत्माहीकी भावना है कळू ज्ञान न्यारा वस्तु नांही है ज्ञान है सो आत्माही है, तैसें दर्शनविर्षे भी आत्माही है, बहुरि चारित्र है सो ज्ञानविषै थिरता रहनाहै सो या विषं भी आत्माही है, बहुरि प्रत्याख्यान आगामी परद्रव्यका संबंध छोड़ना है सो या भावविर्षे आत्माही है, बहुरि संवर परद्रव्यके भावरूप न परिणमनेकाहै सो या भावविधै भी मेरै आत्माही है, बहुरि योग नाम एकाग्र चिंतारूप समाधि ध्यानका है सो या भाववि भी मेरै आत्माही हैं ॥
भावार्थ-ज्ञानादिक कछू न्यारे पदार्थ तो हैं नाही, आत्माहीके भाव है संज्ञादिकके भेदते न्यारे कहिये हैं, तहां अभेददृष्टिकोर देखिये तब ये सर्वभाव आत्माहीहैं तातै भावलिंगी मुनिके अभेद अनुभवमैं विकल्प नाही है; तातै निर्विकल्प अनुभवतै सिद्धिहै यह जाणि ऐसैं करै है ॥ ५८ ॥
आगें इसही अर्थकू दृढ़ करते कहै हैं,अनुष्टुप श्लोक-एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ संस्कृत-एकः मे शाश्वतः आत्मा ज्ञानदर्शनलक्षणः ।
शेषाः मे बाह्याः भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥५९॥