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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित--
गाथा--झायहि पंचवि गुरवे मंगलचउसरलोयपरियरिए।
सुरले गरमहिए आराहणणायगे व रे ॥१२४॥ संस्बाच अधि शुरून मंगतचतुःशाणपरिकरितान् ।
सुरुवामहितान् अाराधनानाय झान वीरान १२४ अर्थ-डेडले ! - पंच गुरु कहिये पंच परमे। हैं तिनहिं ज्याय, इहां अपि' शब्द है सो सुद्धात्मस्वरूपके ध्यानकू सू है, ते पंच परमेष्ठी कैसे हैं-मंगल कहिये पापका गालण अथवा सुखका देना अर चउशरण कहिये च्यार शरण र लोक कहिये लोककं प्राणी तिनिकरि अरहंत सिद्ध साधु केवलि प्रणीत धर्म ये परिकरित फहिये परिवारित हैं युक्त हैं, बहुरि नर सुर विद्याधरनिकरि महित हैं पूज्य हैं लोकोत्तम कहै हैं, बहुरि आराधानके नायक हैं, बहुरि वीर हैं कर्मनिके जीतनेंकू सुभट हैं तथा विशिष्ट लक्ष्माकू प्राप्त हैं तथा देहैं, ऐसे पंच परम गुरुकू ध्याय ॥ __भावार्थ-इहां पंच परमेष्ठीकू ध्यावनां कह्या तह ध्यानविर्षे विघ्नके निवारनेवाले च्यार मंगलस्वरूप कहे ते येही हैं, बहुति च्यार शरण अर लोकोत्तम कहे हैं ते भी इनिहीकू कहे हैं; इनिसिवाय प्राणीकू अन्य शरणां रक्षा करनेवालाभी नाही है, अर लोकवि उत्तमभी येही हैं, बहुरि आराधना दर्शन ज्ञान चारित्र तप ये च्यार हैं ताकै नायक स्वामीभी येही हैं, कर्मनिषं जीतनेवालेभी येही हैं। तातें ध्यानके कत• इनिका ध्यान श्रेष्ठ है, शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति इनिहीके ध्यान होय है तातै यह उपदेश है ॥ १२४ ॥ ___ आगै ध्यान है सो ज्ञानका एकाग्र होनां है सो ज्ञानका अनुभवन का उपदेश करै है;