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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
स्वरूप परद्रव्यतै भिन्न सम्यग्दर्शनज्ञान चरित्रमयी भया वारंवार भावनाकरि अनुभव किया ऐसा जामैं भाव है ऐसा निर्मल कहिये बाह्यमलरहित शुद्ध कहिये अन्तर्मलरहित जिनींग है।
भावार्थ—इहां लिंग द्रव्य भावकार दोयप्रकार है तहां द्रव्य तौ बाह्य त्याग अपेक्षा है जामैं पांचप्रकार वस्त्रका त्याग है, ते पंच प्रकार ऐसैं; अंडज कहिये रेसमतें उपज्या, बोंडुज कहिये कपासतें उपज्या, रोमज कहिये ऊनौं उपज्या, वल्कलज कहिये वृक्षकी त्वचा छालितें उपज्या, चर्मज कहिये मृग आदिककी चमतें उपज्या, ऐसैं पांच प्रकार कहे; तहां ऐसैं नांही जाननां जो---इनि सिवाय और वस्त्र ग्राह्य है—ये तो उपलक्षणमात्र कहे हैं ताः सर्वही वस्त्रमात्रका त्याग जाननां । बहुरि भूमिवि सोवना बैठनां तहां काष्ठ तृण भी गिणि लेनां । बहुरि इंद्रिय मनका वशि करनां छह कायके जीवनिकी रक्षा करनां ऐसैं दोय प्रकार संयम है । बहुरि भिक्षा भोजन करनां जामैं कृत कारित अनुमोदनाका दोष न लागै—छियालीस दोष टलै, बत्तीस अंतराय टलै ऐसैं यथाविधि आहार करै । ऐसैं तो बाह्यलिंग है । बहुरि पूर्वै कया तैसैं होय सो भावलिंग है । ऐसैं दोय प्रकार शुद्ध जिनलिंग कया है, अन्य प्रकार श्वेतांबरादिक हैं हैं सो जिनलिंग नांही है ॥ ८१ ॥
आगैं जिनधर्मकी महिमा कहै है;गाथा-जह रयणाणं पवरं वजं जह तरुगणाण गोसीरं ।
तह धम्माणं परं जिणधम्मं भाविभवमहणं ॥८२॥
१-मुद्रीत संस्कृतसटीक प्रतिमें “भावि भवमहणं " ऐसे दो पद हैं जिनकी संस्कृत "भावय भवमथनं" इस प्रकार है ।