________________
१६२
पंडित जयचंद्र जी छावडा विरचित
___भावार्थ- आचार्य भावपाहुड ग्रंथ रचैं हैं सो भाव प्रधान पंचपरमेष्ठी हैं तिनिळू आदिमैं नमस्कार युक्त है जातें जिनवरेंद्र तौ ऐसे हैं जिन कहिये गुणश्रेणी निर्जराकीर युक्त ऐसे अविरतसम्यग्दृष्टी आदिक तिनिमैं वर कहिये श्रेष्ठ गणधरादिक तिनिमैं इन्द्र तीर्थकर परमदेव है सो गुणश्रेणी निर्जरा शुद्धभावही होय है सो तीर्थकरभावके फलकू पहुंचे घातिकर्मका नाशकरि केवलज्ञान पाया, बहुरि तैसेंही सर्वकर्मका नाशकरि परम शुद्ध भावकू पाय सिद्ध भये, बहुरि आचार्य उपाध्याय शुद्ध भावके एकदेशकू पाय पूर्णता• आप साधैं हैं अन्यकुं शुद्ध भावकी दीक्षा शिक्षा दे हैं, बहुरि साधु हैं ते भी तैसैंही शुद्ध भावकू आप साधै हैं बहुरि शुद्ध भावीके माहात्म्यकरि तीन लोकके प्राणीनिकरि पूजनेयोग्य वंदनेयोग्य कहै हैं; तातै भावप्राभूतकी आदिविषै इनिफू नमस्कार युक्त है बहुरि मस्तककरि नमस्कार करने मैं सर्व अंग आय गये जाते मस्तक अंगनिमें उत्तम है, बहुरि आप नमस्कार किया तब अपना भावपूर्वक भयाही तब 'मन वचन काय' तीनूंही आय गये ऐसैं जाननां ॥ १ ॥
आगैं कहै है जो लिंग द्रव्यभाव करि दोय प्रकार है तिनिमैं भावलिंग परमार्थ हैगाथा--भावो हि पढमलिंगं ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं ।
भावो कारणमूदो गुणदोसाणं जिणा विति ॥२॥ संस्कृत-भावः हि प्रथमलिंगं न द्रव्यलिंगं च जानीहि परमार्थम् ।
भावो कारणभूतः गुणदोषाणां जिना विदन्ति ॥२॥ __ अर्थ-भाव है सो प्रथमलिंग है याहीत हे भव्य ! तू द्रव्यलिंग है ताहि परमार्थरूप मति जाणे जाते गुण अर दोष इनिका कारणभूत भावही है ऐसैं जिन भगवान कहैं हैं ॥