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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
संस्कृत-अमनोज्ञे च मनोज्ञे सजीवद्रव्ये अजीवद्रव्ये च ।
न करोति रागद्वेषौ पंचेंद्रियसंवरः भणितः ॥२९॥ अर्थ-अमनोज्ञ तथा मनोज्ञ ऐसे जे पदार्थ जिनिळू लोक अपने मानैं ऐसे सजीवद्रव्य स्त्रीपुत्र आदिक, अर अजीवद्रव्य धन धान्य आदि सर्व पुद्गलद्रव्य आदि, तिनिवि. राग द्वेष न करै सो पांच इन्द्रियनिका संवर कया है। - भावार्थ—इन्द्रियगोचर जे जीवअजीवद्रव्य हैं ते इंद्रियनिके ग्रहण मैं
आवै है तिनिमैं यह प्राणी काहूकू इष्ट मानि राग कर है काहूकू अनिष्ट मानि द्वेष करै है ऐसैं राग द्वेष मुनि नांहीं करै है ताकै संयमचरण चारित्र होय है ॥ २९॥ ___ आगें पांच व्रतनिका स्वरूप कहै है;गाथा-हिंसाविरइ अहिंसा असञ्चविरई अदत्तविरई य ।
तुरियं अवंभविरई पंचम संगम्मि विरई य ॥३०॥ संस्कृत-हिंसाविरतिरहिंसा असत्यविरतिः अदत्तविरतिश्च ।
तुर्य अब्रह्मविरतिः पंचमं संगे विरतिः च ॥३०॥ अर्थ--प्रथम तौ हिंसा विरति सो अहिंसा है, बहुरि दूजा असत्यविरति है; बहुरि तीजा अदत्तविरति है, बहुरि चौथा अब्रह्मविरति है पांचमां परिग्रहविरति है ।
भावार्थ इनि पांच पापनिका सर्वथा त्याग जिनमैं होय ते पांच महाव्रत हैं ॥३०॥ ___ आगें इनिळू महाव्रत ऐसा नाम काहेरौं है सो कहै है;गाथा-साहंति जं महल्ला आयरिमं जं महल्लपुव्वेहिं ।
जं च महल्लाणि तदो महव्वया इत्तहे याई ॥३१॥