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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ।
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भोगादिक जिनिमैं अल्पसार ऐसे जिनिविषै कहा मोहकूं प्राप्त होय ? कैसा है मुनिधवल—– मोक्षकूं जानता है तिसहीकी तरफ दृष्टि है तिसहीका चिंतन करै है |
भावार्थ - जे मुनिप्रधान हैं. तिनिकी भावना मोक्षके सुखनिमैं है ते बडी बडी देव विद्याधरनिकी फैलाई विक्रियाऋद्धि विषैही लालसा न करै तौ किंचित्मात्र विनाशीक जे मनुष्य देवनिका भोगादिकका सुख तिनिविषै वांछा कैसे करे ? न करै ॥ १३१ ॥
आगें उपदेश करे है जो जेतैं जरा आदिक न आवैं ते तैं अपनां हित करौ;
गाथा - उत्थरइ जा ण जरओ रोयग्गी जा ण डहह देहउडिं । इंदियबलं न वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ॥ १३२ संस्कृत--आक्रमते यावन्न जरा रोगाग्निर्यावन्न दहति देहकुटीम् । इन्द्रियबलं न विगलति तावत् त्वं कुरु आत्महितम् १३२ अर्थ — हे मुने ! जेतैं तेरे जरा वृद्धपणां न आवै बहुरि रोगरूप अग्नि तेरी देहरूप कुटीकूं जेतैं दग्ध न करै बहुरि जेतैं इन्द्रियनिका बल न घटै तेतैं अपना हितकूं करि ॥
भावार्थ वृद्ध अवस्थामैं देह रोगनिकरि जर्जरी होय इंद्रिय क्षीण पड़े तब असमर्थ भया इस लोकके कार्य उठनां बैठनां भी न करि सकै तब परलोक संबंधी तपश्चरणादिक तथा ज्ञानाभ्यास स्वरूपका अनुभवादिक कार्य कैसे करे तातैं यह उपदेश है जो-जेतैं सामर्थ्य है तेतैं अपन हितरूप कार्य करिल्यो ॥ १३२ ॥
आगैं अहिंसाधर्मका उपदेश वर्णन करे है: