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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । २९७ ___ आगैं कहै है जो स्वद्रव्यविर्षे रत है सो सम्यग्दृष्टी होय है अर कर्मका नाश करै है;गाथा-सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्टी हवेइ सो साहू ।
. सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुदृट्टकम्माई ॥१४॥ संस्कृत-स्वदव्यरतः श्रमणः सम्यग्दृष्टिः भवति सः साधुः ।
सम्यक्त्वपरिणतः पुनःक्षेपयति दुष्टाष्टकमोणि ॥१४॥ अर्थ-जो मुनि स्वद्रव्य जो अपना आत्मा तावि रत है रुचि सहित है सो नियमकरि सम्यग्दृष्टी है, बहुरि सो ही सम्यक्त्व भावरूप परिणम्या संता दुष्ट जे आठ कर्म तिनिकू क्षेपै है, नाश करै है ॥ ___ भावार्थ- यह भी कर्मके नाश करनेका कारणका संक्षेप कथन है
जो अपनां स्वरूपकी श्रद्धा रुचि प्रतीति आचरणकरि युक्त है सो नियमकरि सम्यग्दृष्टी है, इस सम्यक्त्वभाव करि परिणम्या मुनि आठ कर्मका नाश करि निर्वाण पावै है ॥ १४ ॥ ___ आणें कहै है जो परद्रव्यवि रत है सो मिथ्यादृष्टी भया कर्म• बांधै
गाथा-जो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्टी हवेइ सो साहू ।
मिच्छत्तपरिणदो उण बज्झदि दुइटकम्मेहिं ॥१५॥ संस्कृत-यः पुनः परद्रव्यरतः मिथ्यादृष्टिः भवति सः साधुः।
मिथ्यात्वपरिणतः पुनः बध्यते दुष्टाष्टकर्मभिः ॥१५॥ १–मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'सो साहू' के स्थानमें 'णियमेण' ऐसा पाठ है। २-भु. सं. प्रतिमें 'दुट्ठट्टकम्माणि' ऐसा पाठ है । ३–मु. सं. प्रतिमें 'क्षिपते' ऐसा पाठ है ।