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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका।
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रूप उत्तमक्षमा अर दम कहिये इंद्रियनिकू विषयनिमैं न प्रवर्त्तावनां इनि भावनिकरि युक्त है बहुरि कैसी है शरीरसंस्कारवर्जिता कहिये स्नानादिक करि शरीर का संवारनां ताकरि रहित है, बहुरि रूक्ष कहिये तैलादिकका मर्दन शरीरकै जामैं नाही है, बहुरि कैसी है मद राग द्वेष इनिकरि रहित है, ऐसी प्रव्रज्या कही है ।
भावार्थ-अन्यमतके भेषी क्रोधादिकरूप परिणमैं हैं शरीर• संवारि सुंदर राखें हैं इंद्रियनिके विषय सेवैं हैं अर आपकू दीक्षासहित मान हैं सो वै तो गृहस्थतुल्य हैं अतीत कहाय उलटा मिथ्यात्व दृढ करें हैं; जैनदीक्षा ऐसी है सो सत्यार्थ है याकू अंगीकार करें ते सांचे अतीत हैं ॥ ५२ ॥ ___ आगै फेरि कहै है;गाथा-विवरीयमूढभावा पणहकम्मह णहमिच्छत्ता।
सम्मत्तगुण विसुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥५३ ।। संस्कृत-विपरीतमूढभावा प्रणष्टकर्माष्टा नष्टमिथ्यात्वा ।
सम्यक्त्वगुणविशुद्धा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥५३॥ अर्थ-बहुरि कैसी है प्रव्रज्या-विपरीत भया है दूरि भया है मूढभाव कहिये अज्ञानभाव जाकै, अन्यमती आत्माका स्वरूप सर्वथा एकांतकरि अनेक प्रकार न्यारे न्यारे कहि वाद करें हैं तिनिकै आत्माका स्वरूपविर्षे मूढभाव है जैनी मुनिनिकै अनेकांत साध्या हुवा यथार्थज्ञान है तातैं मूढभाव नांहीं है, बहुरि कैसी है प्रणष्ट भया है मिथ्यात्वजामैं जैनदीक्षामैं अतत्त्वार्थश्रद्धानरूप मिथ्यात्वका अभाव है याहीत सम्यक्त्वनामा गुणकरि विशुद्ध है निर्मल है सम्यक्त्वसहित दीक्षामैं दोष. नांही रहै है; ऐसी प्रव्रज्या कही है ॥ ५३ ॥