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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
१७ है, ऐसैं परीक्षा किये विभाग होय है । बहुरि यह व्यवहार मार्ग है, सो व्यवहारी छद्मस्थ जीवनिकै अपने ज्ञानकै अनुसार प्रवृत्ति है, यथार्थ सर्वज्ञदेव जानैं हैं, व्यवहारीकू सर्वज्ञदेव व्यवहारहीका आश्रय बताया है । यह अंतरंग सम्यक्त्वभावरूप सम्यक्त्व है सो ही सम्यग्दर्शन है, बहुरि बाह्यदर्शन व्रत समिति गुप्तिरूप चारित्र अर तपसहित अट्ठाईस मूल्यगुणसहित नग्न दिगंबर मुद्रा याकी मूर्ति है ताकू जिन दर्शन कहिये । ऐसें धर्मका मूल सम्यग्दर्शन जानि जे सम्यग्दर्शनरहित हैं तिनिका वंदना पूजनां निषेध्या है, सो भव्य जीवनिकू यह उपदेश अंगीकार करने योग्य है ॥ २॥ __ आगैं अंतरंग सम्यग्दर्शनविना बाह्य चारित्रनै निर्वाण नाही है, ऐसैं कहैं हैं;गाथा-दंसणभट्टा भट्टा सणभट्टस्स पत्थि णिव्वाणं ।
सिझंति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिझंति ॥ ३ ॥ छाया-दर्शनभ्रष्टाः भ्रष्टाः दर्शनभ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणम् ।
सिध्यन्ति चारित्रभ्रष्टाः दर्शनभ्रष्टाः न सिध्यन्ति ॥३॥ अर्थ-जे पुरुष दर्शनतें भ्रष्ट हैं ते भ्रष्ट हैं जे दर्शन भ्रष्ट हैं तिनिकै निर्वाण नाही होय है जातें यह प्रसिद्ध है जे चारित्रते भ्रष्ट हैं ते तौ सिद्धिकू प्राप्त होय हैं अर दर्शन भ्रष्ट हैं ते सिद्धिकू प्राप्त नाही होय हैं॥ ___भावार्थ-जे जिनमतकी श्रद्धातें भ्रष्ट हैं तिनिकू भ्रष्ट कहिये अर श्रद्धातें भ्रष्ट नांही है अर कदाचित् चारित्रभ्रष्ट कर्मके उदयतें भये हैं तिनिकू भ्रष्ट नहीं कहिये जातें जो दर्शनतें भ्रष्ट है ताकै निर्वाणकी प्राप्ति नांही होय है, जे चारित्रौं भ्रष्ट होय हैं अर श्रद्धानदृढ रहै हैं
अ.व. २