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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषाघचनिका।
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गाथा-रयणत्तयं पि जोइ आराहइ जो हु जिणवरमएण ।
सो झायदि अप्पाणं परिहरइ परं ण संदेहो ॥३६॥ संस्कृत-रत्नत्रयमपि योगी आराधयति यः स्फुटं जिनवरमतेन।
सः ध्यायति आत्मानं परिहरति परं न सन्देहः॥३६॥ अर्थ-जो योगी ध्यानी मुनि जिनेश्वरदेवके मतकी आज्ञाकरि रत्नत्रय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकू निश्चयकरि आराधै है सो प्रगटपणे आत्माही• ध्यावै है जाते रत्नत्रय आत्माका गुण है । अर गुण गुणीमैं भेद नाही, रत्नत्रयकी आराधना है सो आत्माहीका आराधन है सो ही परद्रव्यकू छोडै है यामैं संदेह नाही ॥ ३६ ॥
भावार्थ--सुगम है ॥ ३६ ॥
आगें पूछया जो आत्मावि रत्नत्रय कैसे है ताका उत्तर आचार्य कहै है;गाथा-जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेय ।
तं चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ॥३७॥ संस्कृत-यत् जानाति तत् ज्ञानं यत्पश्यति तच्च दर्शनं ज्ञेयम् ।
तत् चारित्रं भणितं परिहारः पुण्यपापानाम् ॥३७॥ अर्थ-जो जाणौ सो ज्ञान है, जो देखै सो दर्शन है, बहुरि जो पुण्य अर पापका परिहार है सो चारित्र है; ऐसैं जानतां ॥ __ भावार्थ-इहां जाननेवाला अर देखनेवाला अर त्यागर्नेवाला दर्शन ज्ञान चारित्रकू कह्या सो ये तो गुणीके गुण हैं ते कर्ता होय नाही यातें जानन देखन त्यागन क्रियाका कर्ता आत्मा है, यातें ये तीनूं आत्माही हैं, गुण गुणीमैं किछु प्रदेश भेद है नांही । ऐसैं रत्नत्रय है सो आत्माही है, ऐसैं जाननां ॥ ३७ ॥