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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ-दुष्ट जे संसारके दुःख देनेवाले ज्ञानावरणादिक अष्ट कर्म तिनिकरि रहित अर जाकू काहूकी उपमा नाही ऐसा अनुपम अर ज्ञानही है विग्रह कहिये शरीर जाके ऐसा अर नित्य जाका नाश नाही अविनाशी अर शुद्ध कहिये विकाररहित केवलज्ञानमयी आत्मा जिन भगवान सर्वज्ञदेवनैं कह्या सो स्वद्रव्य है ।।
भावार्थ-ज्ञानानंदमय अमूर्तीक ज्ञानमूर्ति अपनां आत्मा है सो ही एक स्वद्रव्य है अन्य सर्व चेतन अचेतन मिश्र पर द्रव्य हैं ॥१८॥
आणें कहै है जो-जे ऐसे निजद्रव्यकू ध्यावें हैं ते निर्वाण पावै
गाथा-जे झायंति सदव् परदव्वपरम्मुहा हु सुचरित्ता ।
ते जिणवराण मग्गे अणुलग्गा लहदि णिव्वाणं ॥१९॥ संस्कृत-ये ध्यायति स्वद्रव्यं परद्रव्यपराङ्मुखास्तु सुचरित्राः।
ते जिनवराणां मार्गे अनुलग्नाः लभंते निर्वाणम् ॥१९॥ अर्थ-जे मुनि परद्रव्यतैं परादुःख भये संते स्वद्रव्य जो निज आत्मद्रव्य ताहि ध्याबैं है ते प्रगट सुचरित्रा कहिये निर्दोष चारित्रयुक्त भये संते जिनवर तीर्थंकरनिके मार्ग• अनुलग्न भये लागे संते निर्वाणकू पावै हैं ॥
भावार्थ-परद्रव्यका त्यागकरि जे अपनां स्वरूपकू व्या हैं ते निश्चयचारित्ररूप होय जिनमार्गमैं लागे ते मोक्ष पा हैं ।। १९ ॥
आगें कहै है जो-जिनमार्गमैं लग्या योगी शुद्धात्माकू ध्याय मोक्ष पाव है तो कहा ताकरि स्वर्ग नहीं पावै ? पावैही पावै, गाथा-जिणवरमएण जोई झाणे झाएह सुद्धमप्पाणं ।
जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइ किं तेण सुरलोयं ॥२०॥