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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
संस्कृत - रूपस्थं शुद्धयर्थं जिनमार्गे जिनवरैः यथा भणितम् । भव्यजनवोधनार्थं षट्कायहितंकरं उक्तम् ।। ६० ।
अर्थ — शुद्ध है अंतरंग भावरूप अर्थ जामैं ऐसा रूपस्थ कहिये बाह्यस्वरूप मोक्षमार्ग जैसा जिनमार्गविषै जिनदेव कया है तैसा छह कायके जीवनिका हित करनेवाला मार्ग भव्यजीवनिके संबोधनकै अर्थ का है ऐसा आचार्यनैं अपना अभिप्राय प्रकट किया है |
भावार्थ — इस बोधपाहुडविषै आयतन आदि प्रव्रज्यापर्यन्त ग्यारह स्थल कहे तिनका बाह्य अंतरंग स्वरूप जैसे जिनदेवनैं जिनमार्ग मैं का तैसें कया है । कैसा है यह रूप 1 -छह कायके जीवनिका हित करनेवाला है एकेंद्रिय आदि असैनी पर्यन्त जीवनिकी रक्षाका जामैं अधिकार है बहुरि सैनी पंचेंद्रिय जीवन की रक्षाभी करावै है अर मोक्षमार्गका उपदेश करि संसारका दुःख भेटि मोक्षकूं प्राप्त करे है ऐसा मार्ग भव्यजीवनि के संबोधनें के अर्थि कया है, जगतके प्राणी आनादितैं लगाय मिथ्यामार्गमै प्रवर्ति संसार मैं भ्रमैं हैं सो दुःख मेटनेकूं आयतन आदि ग्यारह स्थानक धर्मके ठिकानेका आश्रय ले हैं ते ठिकानें अन्यथा स्वरूप स्थापि तिनितैं सुख लिया चाहैं है सो यथार्थविना सुख कहां ता आचार्य दयालु होय जैसैं सर्वज्ञ भाषे तैसें आयतन आदिका स्वरूप संक्षेप करि यथार्थ कया है ताकूं वांचो पढ़ो धारण करो याकी श्रद्धा करो इनि स्वरूप प्रवर्त्तो यातैं वर्तमान मैं सुखी रहो अर आगामी संसार दुःखतैं छूटि परमानन्दस्वरूप मोक्षकूं प्राप्त होहू ऐसा आचार्यका कह"का अभिप्राय है।
इहां कोई पूछै जो इस बोधपाहुडमैं धर्मव्यवहारकी प्रवृत्तिके ग्यारह स्थानक कहे तिनिका विशेषण किया जो छह कायके जीवनि के हित के