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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
संस्कृत-मिथ्यात्वं अज्ञानं पापं पुण्यं त्यक्त्वा त्रिविधेन ।
मौनव्रतेन योगी योगस्थः द्योतयति आत्मानम् ॥२८॥ अर्थ-योगी ध्यानी मुनि है सो मिथ्यात्व अज्ञान पाप पुण्य इनिकू मन वचन कायकरि छोडि मौनव्रतकरि ध्यानविर्षे तिष्ठया आत्माकू ध्यावै है ॥ __भावार्थ-केई अन्यमती योगी ध्यानी कहाबैं हैं तातें जैनलिंगी भी कोई द्रव्यलिंग धारे होय ताके निषेध निमित ऐसे कया है जोमिथ्यात्व अर अज्ञानकू छोडि आत्माका स्वरूप यथार्थ जांनि श्रद्धान जानैं न किया ताकै मिथ्यात्व अज्ञान तौ लग्या र ह्या तब ध्यान काहेका होय, बहुरि पुण्य पाप दोऊ बंधस्वरूप हैं इनि विर्षे प्रीति अप्रीति रहै जैतैं मोक्षका स्वरूप जान्यां नाही तब ध्यान काहे का होय, बहुरि मन वचनकी प्रवृत्ति छोडि मौन न करै तौ एकाग्रता कैसे होय । तातें मिथ्यात्व अज्ञान पुण्य पाप मन वचन काय की प्रवृत्ति छोडना ध्यानविर्षे युक्त कया है ऐसैं आत्माकू ध्याये मोक्ष होय है ॥ २८ ॥ ___ आगें ध्यान करनेवाला मौन करि तिष्ठै है सो कहा विचार करि तिष्ठै है, सो कहै है,अनु० छंदः-जं मया दिस्सदे रूवं तं ण जाणादि सबहा ।
जाणगं दिस्सदेणंतं तम्हा जंपेमि केण हं ॥२९॥ संस्कृत-यत् मया दृश्यते रूपं तत् न जानाति सर्वथा ।
ज्ञायकं दृश्यते न तत् तस्मात् जल्पामि केन अहम् २९ अर्थ-जारूप• मैं देखू हूं सो रूप मूर्तीक वस्तु है जड है अचेतन है सर्व प्रकार करि कळू ही जाणे नांही है, अर मैं ज्ञायकहूं सो
१-मु. सं. प्रतिमें 'णतं' इसकी संस्कृत 'अनन्तः' की है।