Book Title: Ashtpahud
Author(s): Jaychandra Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 429
________________ ३८६ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित - निषेध है, तथा परद्रव्यमात्रका संसर्ग छोडना आत्मा मैं लीन होना सो परमब्रह्मचर्य है । ऐसैं ये शीलहीके नामांतर जाननां ॥ २ ॥ आगे कहै है जो ज्ञान भयेभी ज्ञानका भावनां अर विषयनितैं विरक्त होनां कठिन है; गाथा - दुक्खेणेयदि गाणं गाणं णाऊण भावणा दुक्खं । भावियमई व जीवो विसयेसु विरज्जए दुक्खं || ३ || संस्कृत - दुःखेनेयते ज्ञानं ज्ञानं ज्ञात्वा भावना दुःखम् । भावितमतिश्च जीवः विषयेषु विरज्यति दुःखम् ||३॥ अर्थ — प्रथम तौ ज्ञान है सोही दुःखकरि प्राप्त होय है, बहुरि कदाचित् ज्ञानभी पावै तौ ताकूं जानि करि ताकी भावना करना बारंबार अनुभव करनां दुःखकार होय है, बहुरि कदाचित् ज्ञानकी भावनासहित भी जीव होय तौ विषयनिकूं दुःखकरि त्यागे है | भावार्थ — ज्ञानका पावनां फेरि ताकी भावना करना फेरि विषयनिका त्यागनां ये उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं, अर विषयनिकूं त्यागे विना प्रकृति पलटी न जाय तातें पूर्व ऐसा कया है जो विषय ज्ञानकूं बिगाडै है ता विषयनिका त्यागनां सोही सुशील है ॥ ३ ॥ आमैं कहै है जो यह जीव जे विषयनि मैं प्रवर्ते है तेतै ज्ञानकुं नही जाने है अर ज्ञानकूं जानें विना विषयनितैं विरक्त होय तौऊ कर्मनिका क्षय नांही करै है; ――――― गाथा - ताव ण जाणदि गाणं विसयवलो जाव वट्टए जीवो । विस विरतमेत्तो ण खवेइ पुराइयं कम्म || ४ || संस्कृत - तावत् न जानाति ज्ञानं विषयचलः यावत् वर्त्तते जीवः । विषये विरक्तमात्रः न क्षिपते पुरातनं कर्म ॥ ४ ॥

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