________________
४२
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
वधको अभाव ३ कवलाहारको अभाव ४ उपसर्गको अभाव ५ चतुमुखपणौं ६ सर्व विद्याप्रभुत्व ७ छायारहितत्व ८ लोचननिस्पंदनरहितत्व ९ केश नखवृद्धिरहितत्व १० ऐसैं दश । बहुरि देवनिकरि भये चौदह;सकलार्द्धमागधी भाषा १ सर्वजीव मैत्रीभाव २ सर्वऋतुफलपुष्पप्रादुर्भाव ३ आदर्शसदृश पृथ्वी होय ४ मंद सुगंध पवन चलै ५ सर्व लोकमैं आनंद वत्तै ६ भूमिकंटकादिरहित होय ७ देव गंधोदक वृष्टि करै ८ विहार होय तब पदकमल तलैं देव सुवर्णमयी कमल रचे ९ भूमि धान्यनिष्पत्तिसहित होय १० दिशा आकाश निर्मल होय ११ देवनिका आह्वानन शब्द होय १२ धर्म चक्र आणें चलै १३ अष्ट मंगल द्रव्य होय १४ ऐसैं चौदह । सर्व मिलि चौतीस भये । बहुरि अष्ट प्रातिहार्य होय, तिनिके नाम;-अशोकवृक्ष १ पुष्पवृष्टि २ दिव्यध्वनि ३ चामर ४ सिंहासन ५ छत्र ६ भामंडल ७ दुंदुभिवादित्र ८ ऐसैं आठ । ऐसे अतिशयनिसहित अनंतज्ञान अनंतदर्शन अनंतसुख अनंतवीर्य सहित. तीर्थकर परमदेव जेते जीवनिके संबोधन निमित्त विहार करते विराज तेरौं स्थावर प्रतिमा कहिये । ऐसें स्थावर प्रतिमा कहने” तीर्थकरकै केवलज्ञान भये पीछे अवस्थान जनाया है । अर धातु पाषाणकी प्रतिमा रचि स्थापिये है सो याका व्यवहार है ॥ ३५॥ __ आरौं कर्म नाश करि मोक्ष प्राप्त होय हैं ऐसैं कहै हैं;गाथा-वारसविहतवजुत्ता कम्मं खविऊण विहिवलेण स्सं ।
वोसट्टचत्तदेहा णिव्वाणमणुत्तरं पत्ता ॥३६॥ संस्कृत-द्वादशविधतपोयुक्ताः कर्म क्षपयित्वा विधिबलेण
स्वीयम् । व्युत्सर्गत्यक्तदेहा निर्वाणमनुत्तरं प्राप्ताः ॥३६॥