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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
भावार्थ-आपकू कोई दोष लाग्या होय अर निष्कपट होय गुरूकू कहै तौ बह दोष निवृत्त होय, अर आप शल्यवान रहै तौ मुनिपदमैं यह बडा दोष है, तातैं अपनां दोष छिपावनां नाही, जैसा होय तैसा सरलबुद्धि” गुरुनिपासि कहनां तब दोष मिटै, यह उपदेश है । कालके निमित्त” मुनिपदतै भ्रष्ट भये पीछे गुरुनिवासि प्रायश्चित्त न लिया तब विपरीत होय संप्रदाय न्यारा बांध्या, ऐसैं विपर्यय भया ॥ १०६ ॥ ___ आगैं क्षमाका उपदेश करै है;गाथा-दुज्जणवयणचडकं णिहरकडुयं सहति सप्पुरिसा ।
कम्ममलणासण भावेण य णिम्ममा सवणा॥१०७॥ संस्कृत-दुर्जनवचनचपेटां निष्ठुरकटुकं सहन्ते सत्पुरुषाः ।
कर्ममलनाशनार्थ भावेन च निर्ममाः श्रमणाः॥१०७॥ अर्थ-सत्पुरुष मुनि हैं ते दुर्जनके वचनरूप चपेट जो निष्ठुर कहिये कठोर दयारहित अर कटुक कहिये सुनतेही काननिकू कड़ा सूल समान लागै ऐसी चपेट है ताहि सहैं हैं, ते कौन आर्थि सहैं हैं—कर्मनिके नाश होनेंके अर्थि पूर्व अशुभकर्म बांध्या था ताके निमित्त दुर्जन. कटुक वचन कह्या आप सुन्यां ताळू उपशम परिणामतें आप सहै तब अशुभकर्म उदय दो (इ) खिरि गया ऐसैं कटुकवचन लहे कर्मका नाश होय है, बहुरि ते मुनि सत्पुरुष कैसे हैं अपने भावकरि वचनादिककरि निर्ममत्व हैं वचनतें तथा मान कषायतै अर देहादिकतैं ममत्व नांही है, ममत्व होय तो दुवचन सह्या न जाय, यह न जानै जो ये मोकू दुर्वचन कह्या, तातै ममत्वके अभाव दुर्वचन सहै है। तारौं मुनि होय कार काहू क्रोध न करनां यह उपदेश है । लौकिकमैं भी जे बडे पुरुष हैं ते दुर्वचन सुानेकै क्रोध न करें हैं तब मुनि तौ सहना उचितही है, जे कोव करें हैं ते कहबेके तपस्वी हैं, सांचे तपस्वी नाही ॥ १०७ ॥