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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३४५ नेमैं वस्तुके स्वरूपका विचार आवै तब दुःख मिटै है । सम्यग्दृष्टीकै ऐसा विचार होय है-जो वस्तुका स्वरूप सर्वज्ञनैं जैसा जान्यां है तैसा निरन्तर परिणमै है सो होय है, इष्ट अनिष्ट मानि दुःखी सुखी होनां निष्फल है। ऐसे विचारतें दुःख मिटै है यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है जारौं सम्यक्त्वका ध्यान करना कह्या है ।। ८६ ॥
आणु सभ्यक्त्वका ध्यानही की महिमा कहै है,-- गाथा-सम्मत्तं जो झायइ सम्माइट्टी हवेइ सो जीवो ।
सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुदृढकम्माणि ॥८७॥ संस्कृत-सम्यक्त्वं यः ध्यायति सम्यग्दृष्टिः भवति सः जीवः।
सम्यक्त्वपरिणतः पुनः क्षपयति दुष्टाष्टकर्माणि ॥८७॥ अर्थ--जो श्रावक सम्यक्त्वकू ध्यावै है सो जीव सम्यग्दृष्टी है बहुरि सम्यत्क्वरूप परिणया संता दुष्ट जे आठ कर्म तिनिका क्षय करै है ॥
भावार्थ--सम्यक्त्वका ध्यान ऐसा है जो पहलै सम्यक्त्व न भया होय तौऊ याका स्वरूप जानि याकू ध्यावै तौ सम्यग्दृष्टी होजाय है । बहुरि सम्यक्त्व भये याका परिणाम ऐसा है जो संसारके कारण जे दुष्ट अष्ट कर्म तिनिका क्षय होय है, सम्यक्त्व होते ही कर्मनिकी गुणश्रेणी निर्जरा होने लगि जाय है, अनुक्रम” मुनि होय तब चारित्र अर शुक्लध्यान याके सहकारी होंय तब सर्व कर्मका नाश होय है ॥ ८७ ।।
आगैं याकू संक्षेपकरि कहे है;-- गाथा--किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले ।
सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणइ सम्ममाहप्पं ८८ संस्कृत-किं बहुना भणितेन ये सिद्धाः नरवराः गते काले ।
सेत्स्यति येऽपि भव्याः तज्जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यम्