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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितसंस्कृत-चतुःषष्टिचमरसहितः चतुर्विंशद्भिरतिशयैः संयुक्तः।
अनवरतबहुसत्त्वहितः कर्मक्षयकारणनिमित्तः॥२९॥ ___ अर्थ-जो चौसठि चमरनिकरि सहित हैं, बहुरि चौंतीस अतिशयनिकरि सहित हैं, बहुरि निरन्तर बहुत प्राणीनिका हित जाकरि होय है, ऐसे उपदेशके दाताहैं बहुार कर्मका क्षयका कारण हैं ऐसे तीर्थकर परमदेव हैं ते वंदिवे योग्य हैं । __ भावार्थ-इहां चौसठि चमर चौतसि अतिशय सहित विशेषणनि कार तो तीर्थकरका-प्रभुत्व जनाया है, अर प्राणीनिका हित करनां अर कर्मका क्षयका कारण विशेषण" परका उपकारकरनहारापणां जनाया है, इनि दोऊही कारणनितै जगत मैं वंदवे पूजवे योग्य हैं । यातै ऐसा भ्रम नहीं करना जो तीर्थकर कैसैं पूज्य हैं, ये तीर्थकर सर्वज्ञ वीतराग हैं । तिनिकै समवसरणादिक विभूति रचि इन्द्रादिक भक्तजन महिमा करें हैं । इनिकै कळू प्रयोजन नाही है आप दिगंबरताकू धारें
अंतरीख तिष्ठं हैं, ऐसा जाननां ॥ २९॥ ___ आरौं मोक्ष काहे नैं होय है सो कहैं हैं;गाथा-णाणेण दंसणेण य तवेण चरियेण संजमगुणेण ।
चउहि पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिहो ॥३०॥ संस्कृतः--ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण संयमगुणेन ।
चतुर्णामपि समायोगे मोक्षः जिनशासने दृष्टः॥३०॥ अर्थ-ज्ञान करि दर्शनकार तपकरि अर चारित्रकरि इनि च्यारनिका समायोग होतें जो संयमगुण होय ताकरि जिनशासनवि मोक्ष होना कह्या है ॥ ३०॥
१ 'अणुचरबहुसत्तहिओ' (अनुचरबहुसत्वहितः) मुद्रित पदप्राभृतमें यह पाठ है । २ 'निमित्ते' मुद्रित षट्प्राभृतमें ऐसा पाठ है