Book Title: Ashtpahud
Author(s): Jaychandra Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 409
________________ ३६६ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिततिनिका फल है, पूर्वजन्ममैं किंचित् शुभ परिणाम कियाथा तातै पुण्यकर्म बंध्याथा ताका उदयतें कछू विन्न टलै है अर राजादिक पदवी पावै है सो पूर्वै कछ अज्ञानतप किया होय ताका फल है सो ये तो पुण्यपापरूप संसारकी चेष्टा है, यामैं कळू बडाई नाही; बडाई तो जो है जाते संसारका भ्रमण मिटै सो तौ वीतराग विज्ञान भावनिहीतै मिटैगा, सो तिस वीतराग विज्ञान भावनियुक्त पंच परमेष्टी हैं तेही संसारका भ्रमण के दुःख मेटनें• कारण हैं। वर्तमानमैं कळू पूर्व शुभ कर्मका उदयतें पुण्यका चमत्कार देखि तथा पापका दुःख देखि भ्रम नहीं उपजावनां, पुण्य पाप दोऊ संसार हैं तिनि” रहित मोक्ष है, सो संसार” छुटि मोक्ष होय तैसाहा उपाय करनां । अर वर्तमानकाभी विन्न जैसा पंचपरमेष्ठीका नाम मत्र ध्यान दर्शन स्मरण” मिटैगा तैसा अन्यके नामादिकतै तौ न मिटैगा जानैं ये पंचपरमेष्टी ही शांतिरूप है केवल शुभ परिणामनिहींकू कारण हैं । बहुरि अन्य इष्टके रूप हैं ते तौ रौद्ररूप हैं तिनिका तौ दर्शन स्मरण है सो रागादिक तथा भयादिकका कारण है, तिनितें तौ शुभ परिणाम होता दीखै नांही। कोईकै कदाचित् कछू धर्मानुरागके वशतें शुभपरिणाम होय तौ सो तिनितें तौ न भया कहिये, वा प्राणीकै स्वाभाविक धर्मानुरागके वश” होय है । तातै अतिशयवान शुभपरिणामका कारण तौ शांतिरूप पंच परमेष्ठीहीका रूप है तातें याहीका आराधन करना, वृथा खोटी युक्ति सुनि भ्रम नहीं उपजावनां, ऐसें जाननां ॥ इतिश्रीकुन्दकुन्दस्वामि विरचित मोक्षप्राभृतकी । जयपुरनिवासि पं. जयचन्द्रजीछावड़ाकृत देशभाषामयवचनिका समाप्त ॥६॥

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