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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका।। १६७ संस्कृत-भावरहितेन सत्पुरुष ! अनादिकालं अनंतसंसारे ।
गृहीतोज्झितानि बहुशः बाह्यनिग्रंथरूपागि ।। ७॥ अर्थ-हे सत्पुरुष ! अनादिकाल लगाय इस अनंत संतारविौं तैं भावरहित निगंथरूप बहुत वार ग्रहण किया अर छोडया ॥
भावार्थः—भाव जो निश्चय सन्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तिल विना बाह्य निग्रंथरूप द्रव्यलिंग संसाराविधैं अनंतकाल लगाय बहुतबार धारे अर छोड़े तथापि किछू सिद्धि न भई चतुर्गतिविौं भ्रमता ही रह्या ॥७ ॥ ___ सो ही कहै है:---- गाथा—भीसणणरचगईए तिरियगईए कुदेवमणुगइए ।
पत्तोसि तिव्वदुक्खं भावहि जिगभावणा जीव ! ॥ संस्कृत-भीषणनाकातौ तिर्यग्गतौ कुदेवमनुष्यगत्योः ।
प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं भावय जिनभावनांजीव! ॥८॥ अर्थ-हे जीव ! तैं भीषण भयकारी नरकगति तथा तिर्यंचगति बहुरि कुदेव कुमनुष्यगतिवि. तीव्र दुःख पाये तातें अब तू जिनभावनां कहिये शुद्ध आत्मतत्त्वकी भावना भाय यातें तैरै संसारका भ्रमण मिटै ॥
भावार्थ-आत्माकी भावना विना च्यार गतिके दुःख अनादि काल तैं संसारवि. पाये यातें अब हे जीव ! तू जिनेश्वरदेवका शरण ले अर शुद्धस्वरूपका बारबार भावनारूप अभ्यास करि यातँ संसारका भ्रमगते रहित मोक्षकू प्राप्त होय, यह उपदेश है ॥ ८ ॥
आण च्यारि गतिके दुःखनिकू विशेषकर कहै है, तहां प्रथम ही नरकगतिके दुःखनिकू कहै है;गाथा-सत्तसुणरयावासे दारुणभीसाई असहणीयाई ।
भुत्ताई सुइरकालं दुःक्खाइं णिरंतरं सहिय ॥९॥