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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ।
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गाथा-असुईवीहत्थेहि य कलिमलबहुलाहि गब्भवसहीहि ।
वसिओसि चिरं कालं अणेयजणणीण मुणिपवर ॥१७॥ संस्कृत-अशुचिबीभत्सासु य कलिमलबहुलासु गर्भवसतिषु ।
उषितोऽसि चिरं कालं अनेकजननीनांमुनिप्रवर! ॥१७॥ अर्थ—हे मुनिप्रवर ! तू कुदेवयोनित चयकरि अनेक माताकी गर्भकी वसतीविर्षे बहुत काल वस्या, कैसी है— अशुचि कहिये अपवित्र है, बहुरि बीभत्स है घिणावणी है, बहुरि कैसी है कलिमल बहुत है जामैं पापरूप मलिन मलकी बहुलता है । ___ भावार्थ—इहां मुनिप्रवर ऐसा संबोधन है सो प्रधानपण मुनिनिकू उपदेश है जो मुनिपदले मुनिनिमैं प्रधान कहावै अर शुद्धात्मरूप निश्चय चारित्रकै सन्मुख न होय ताकू कहै है जो बाह्य द्रव्यलिंग तो बहुतवार धारि च्यार गतिमैंही भ्रमण किया देवभी हुवा तौ तहांतें चयकरि ऐसे मलिन गर्भवास विर्षे आया तहांभी बहुतवार वस्या ॥ १७ ॥ __ आफेरि कहै—जो ऐसे गर्भवास” नीसरि जन्मले अनेक मातानिका दूध पिया;गाथा--पीओसि थणच्छीरं अणंतजम्मतराई जणणीणं ।
अण्णाण्याण महाजस ! सायरसलिलाहु अहिययरं॥१८॥ संस्कृत-पीतोऽसि स्तनक्षीरं अनंतजन्मांतराणि जननीनाम् । अन्यासामन्यासां महायशः ! सागरसलिलात्
अधिकतरम् ॥१८॥ अर्थ-हे महाजस ! तिस पूर्वोक्त गर्भवासविर्षे अन्य अन्य जन्म विर्षे अन्य अन्य माताका स्तनका दूध” समुद्रके जलतें भी अतिशयकरि अधिक पिया ॥