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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
अब इहां धर्मका तथा दर्शनका स्वरूप जान्या चाहिये, सो स्वरूप तौ संक्षेपकरि ग्रंथकार ही आगैं कहसी तथापि किक अन्य ग्रंथनिकै अनुसार इहां भी लिखिए है;-तहां 'धर्म' ऐसा शब्दका अर्थ यह, जो आत्माकू संसार नै उद्धार सुखस्थानविर्षे स्थापै सो धर्म है। बहुरि दर्शन नाम देखनेंका है । ऐसैं धर्मकी मूर्ति देखनेंमें आवै सो दर्शन है सो प्रसिद्धतामैं जामैं धर्मका ग्रहण होय ऐसा मतकू 'दर्शन' ऐसा नाम कहिए है । सो लोकमैं धर्मकी तथा दर्शनकी सामान्य पण मान्यता तौ सर्वकै है परन्तु सर्वज्ञ विना यथार्थ स्वरूपका जानना होय नाही, अर छद्मस्थ प्राणी अपनी बुद्धि” अनेक स्वरूप कल्पनां करि अन्यथा स्वरूप स्थापि तिसकी प्रवृत्ति करैं हैं । सो जिनमत सर्वज्ञकी परंपरायतें प्रवर्ते है सो यामैं यथार्थ स्वरूपका प्ररूपण है । तहां धर्म निश्चय व्यवहार करि दोय प्रकार करि साध्या है । ताकी च्यार प्रकार प्ररूपणा है—प्रथम तौ वस्तुस्वभाव, तथा उत्तम क्षमादिक दश प्रकार, तथा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप, तथा जीवनिकी रक्षारूप, ऐसैं च्यार प्रकार है । तहां निश्चय करि साधिए तब तो सर्वमैं एक ही प्रकार है जारौं वस्तुस्वभाव कहनेंतें जो जीवनामा वस्तुका परमार्थरूप दर्शन ज्ञान परिणाममयी चेतना है, सो यहु चेतना सर्व विकारनितें रहित शुद्धस्वभाव रूप परिणमै सो ही याका धर्म है । बहुरि उत्तमक्षमादिक दश प्रकार कहनेंतें क्रोधादिककषायरूप आत्मा न होय अपने स्वभावमैं स्थिर होय सो ही धर्म है, यह भी शुद्धचेतनारूपही भया । बहुरि दर्शन ज्ञान चारित्र कहनेंतें तीनूं एक ज्ञानचेतनाहीके परिणाम हैं, सो ही ज्ञानस्वभावरूप धर्म है। बहुरि जीवनिकी रक्षा कहनेंतै जीवकैं आप तथा परकै क्रोधादि कषायनिके वश” पर्यायका विनाशरूप मरण तथा दुःख संक्लेश परिणाम न करनां ऐसा अपना स्वभाव, सो