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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । १८९.
भावार्थ — इहां ' मुनिवर ' ऐसा संबोधन है सो पूर्ववत् जाननां, बाह्य आचरणसहित मुनि होय ताहीकूं इहां प्रधानप उपदेश है जो बाह्य आचरण किया सो तौ बड़ा कार्य किया परन्तु भावविना यह निष्फल है तातैं भावके सन्मुख रहनां, भावविना ये अपवित्र स्थान मिले हैं ॥ ४१ ॥
आगे कहै है यह देह ऐसा है ताकूं विचारौ - गाथा - मंसहिसक सोणियपित्तंतसवत्त कुणिमदुग्गंधं ।
खरिसवस पूयखिमिस भरियं चिंतेहि देहउडं ॥ ४२ ॥ गाथा - मांसास्थिशुक्र श्रोणितपित्तांत्रस्रवत्कुणिमदुर्गन्धम् ।
खरिसवसापूय किल्बिषभरितं चिन्तय देहकुटम् ॥ ४२ ॥ अर्थ — हे मुने ! तू देहरूप घटकूं ऐसा विचारि, कैसा है देहघटमांस अर हाड अर शुक्र कहिये वीर्य अर श्रोणित कहिये रुधिर अर पित्तकहिये उष्टिविकार अर अंत्र कहिये आंतरे ऊरते तिनिकर तत्काल मृतककी ज्यों दुर्गंध है, बहुरि कैसा है देहघट खरिस कहिये रुधिरसूं मिल्या अपकमल, वसा कहिये मेद अर पूय कहिये बिगड्या लोही राधि ये सर्व मलिन वस्तुनिकरि पूर्ण भन्या है ऐसा देहरूप घटकूं बिचारि ॥
भावार्थ — यह जीव तौ पवित्र है शुद्धज्ञानमयी है अर ये देह ऐसा तामैं बसना अयोग्य है ऐसा जनाया है ॥ ४२ ॥
आगे कहै है— जो कुटुंबतें छूट्या सो नांही छूट्या भावतैं छूटे छूट्या कहिये ;
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गाथा - भावविमुत्तो मुत्तो ण य मुत्तो बंधवाहमित्तेण । इय भाविऊण उज्झसुगंध अभंतरं धीर || ४३ ॥
१ उष्णविकार |