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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २७५ कछू करनेयोग्य कार्यन रह्या तातें भी कर्मविप्रमुक्त है सांख्यमती नैयायिक सदाही कर्मरहित मानें हैं तैसें नाही हैं ऐसैं परमात्माके सार्थक नाम हैं अन्यमती अपने इष्टके नाम एकही कहै हैं तिनिका सर्वथा एकान्तका अभिप्रायकार अर्थ विगड़ें है सो यथार्थ नाही । अरहंतके ये नाम नयविवक्षातें सत्यार्थ है. ऐसैं जाननां ॥१५१॥
आगें आचार्य कहै है जो-ऐसा देव है सो मोकू उत्तम बोधि द्यो;गाथा-इम घाइकम्ममुक्को अहारहदोसवन्जियो सयलो।
तिहुवणभवणपदीवो देऊ मम उत्तमं बोहिं ॥१५२॥ संस्कृत-इति घातिकर्ममुक्तः अष्टादशदोषवर्जितः सकलः।
त्रिभुवनभवनप्रदीपः ददातु मह्यं उत्तमां बोधिम् १५२ __ अर्थ—इति कहिये ऐसैं घाति कर्मनिकरि रहित क्षुधा तृषा आदि पूर्वोक्त अठारह दोषनिकरि वर्जित सकल कहिये शरीरसहित अर तीन भुवनरूपी भवनके प्रकाशनेंकू प्रकृष्टदीपक तुल्य देव है सो मोकू उत्तम बोधि कहिये सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी प्राप्ति द्यो, ऐसैं आचार्यनें प्रार्थना करी है ॥
भावार्थ-इहां और तौ पूर्वोक्त प्रकार जाननां, अर सकल विशेषण है ताका यह आशय है जो मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिके उपदेशके वचन प्रव विना न होय अर वचनकी प्रवृत्ति शरीर विना न होय तातें अरहंतका आयुकर्मका उदयतें शरीरसहित अवस्थान रहै है, अर सुस्वर आदि नामकर्मके उदयतै बचनकी प्रवृत्ति होय है, ऐसे अनेक जीवनिका कल्याण करनेवाला उपदेश प्रतते है। अन्यमतीनिकै ऐसा अवस्थान परमात्माकै संभवै नांही तातै उपदेशकी प्रवृत्ति न बणै तब मोक्षमार्गका उपदेश भी न प्रवर्ते ऐसें जाननां ॥ १५२ ॥