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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित -
आदि नाम कर्मके उदयतैं भया नाम अर काल जैसा उत्सर्पिणी अवसर्पिणी तिनि पुगलके परमाणुरूप स्कंध ते बहुतवार अनंतवार ग्रहण किये अर छोड़े ||
भात्रार्थ—भावलिंग विना लोकमैं जे ते पुद्गल स्कंध है ते ते सर्वही ग्रहे अर छोड़े तौऊ मुक्त न भया ॥ ३५ ॥
आगै क्षेत्रकूं प्रधान करि क है है ;
गाथा -- तेयाला तिणि सया रज्जूणं लोयखेत्तपरिमागं । मुह पसा जत्थ ण दुरुदुलिओ जीवों ||३६|| संस्कृत — त्रिचत्वारिंशत् त्रीणि शतानि रज्जुनां लोक
क्षेत्रपरिमार्ग | मुक्त्वाऽष्टौ प्रदेशान् यत्र न भ्रमितः जीवः || ३६ ||
अर्थ – यहु लोक तीनसैं तियालीस राजू परिमाण क्षेत्र है ताकै वीचि मेरुकै त ै गोस्तनाकार आठ प्रदेश हैं तिनिकूं छोड़कर अन्य प्रदेश ऐसा न रह्या जामैं यहजीव नांही जनम्या मया ॥
भावार्थ - ' दुरुदुलिओ' ऐसा प्राकृतमैं भ्रमण अर्थका धातुका आदेश है, अर क्षेत्र परावर्तन मैं मेरुकै तल आठ प्रदेश लोकके मध्यके हैं तिनि जीव अपने प्रदेशनिके मध्यदेश उपजै हैं तहांतें क्षेत्र परावर्तनका प्रारंभ कीजिये है तातें तिनिकूं पुनरुक्त भ्रमण मैं न गणये है ॥३६॥
आगैं यह जीव शरीरसहित उपजै मेरे है तिस शरीर मैं रोग होय हैं तिनिकी संख्या दिखा है; -
गाथा -- एकेकेगुलि वाही छण्णवदी होंति जाण मणुयाणं । अवसेसे य सरीरे रोया भण कित्तिया भणियां ॥ ३७॥