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४०२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितजानि कुमतीनिका प्रसंग न करना, विषयासक्तपणां छोडनां याते सुशीलपणां होय है ॥२६॥
आज कहै है जो कर्मकी गाठि विषय सेयकरि आपही वांधी है ताकू सत्पुरुष तपश्चरणादिककरि आपही काटै है;गाथा-आदेहि कम्मगंठी जा बद्धा विसयरागरागेहिं ।
तं छिन्दति कयत्था तवसंजमसीलयगुणेण ॥२७॥ संस्कृत-आत्मनि कर्मग्रंथिः या बद्धा विषयरागरागैः ।
तां छिन्दंति कृतार्थाः तपः संयमशीलगुणेन ॥२७॥ अर्थ-जे विषयनिके रागरंगकरि आपही कर्मकी गांठि बांधी है ताळू कृतार्थ पुरुष उत्तम पुरुष तप संयम शील इनि” भया जो पुण्य ताकरि छेर्दै हैं खोलें हैं। ___ भावार्थ-जो कोई आप गांठि धुलाय बांधै ताकै खोलनेका विधान भी आपही जाने, जैसैं सुनार आदि कारीगर आभूषणादिककी संधिकै टांका ऐसा झालै जो वह संधि अदृष्ट होय जाय तब तिस संधिळू टाकेका झालनेवालाही पहचानिकरि खोले तैसैं आत्मा अपनेही रागादिक भावकरि कर्मनिकी गांठि बांधी है ताहि आपही भेदज्ञानकरि रागादिककै अर आपके जो भेद है तिस संधिकू पहचानि तप संयम शीलरूप भावरूप शस्त्रनिकरि तिस कर्मबंधकू काटै, ऐसा जानि जे कृतार्थ पुरुष हैं अपने प्रयोजनके करनेवाले हैं ते इस शील गुणकू अंगीकार करि आत्माकू कर्म” भिन्न करें हैं, यह पुरुषार्थ पुरुषनिका कार्य है ॥ २७ ॥
आगें कहै है जो शीलकरि आत्मा सोभै है याकू दृष्टान्तकरि दिखावै है;गाथा-उदधीव रदणभरिदो तवविणयंसीलदाणरयणाणं ।
__ सोहेतो य ससीलो णिव्वाणमणुत्तरं पत्तो ॥ २८ ॥ १ संस्कृत प्रतिमें-'विषयरायमोहेहिं' ऐसा पाठ है छाया विषय राग मोहै:' है।