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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ – जो जिनदेवका उपदेव्या धर्म करै है सो सम्यग्दृष्टी श्रावक है, बहुरि जो अन्यमतका उपदेश्या धर्म करे है सो मिथ्यादृष्टी जाननां ॥ ९४ ॥
जो— यह तो अपना
भावार्थ - ऐसे कहतें इहां कोई तर्क करै मत पोषकी पक्षपातमात्र वार्त्ता कही ? ताकूं कहिये है, जो — ऐसैं नांही है, जामैं सर्व जीवनिका हित होय सो धर्म हैं सो ऐसा अहिंसारूप धर्म जिनदेवही प्ररूप्याहै, अन्यमतमैं ऐसा धर्मका निरूपण नांही, ऐसैं जाननां ॥ ९४ ॥
आगे कहै है जो —मिथ्यादृष्टी जीव है सो संसारविषै दुःखसहित भ्रमै है, -
गाथा --मिच्छादिट्टी जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ । जम्मजरमरणपउरे दुक्खसहस्सा उलो जीवो ।। ९५ ।। संस्कृत - - मिथ्यादृष्टिः यः सः संसारे संसरति सुखरहितः । जन्मजरामरणप्रचुरे दुःखसहस्राकुलः जीवः ॥ ९५ ॥ अर्थ – जो मिथ्यादृष्टी जीव है सो जरा मरणनिकरि प्रचुर भया अर दुःखनिके हजारानिकरि व्याप्त जो संसार ताविषै मुखकरि रहित दु:खी भया भ्रमैं है |
भावार्थ—मिथ्याभावका फल संसार मैं भ्रमण करना ही है, सो यह संसार जन्म जरा मरण आदि हजारां दु:खनि करि भन्या है, तिनिदुःखनिकूं मिथ्यादृष्टी या संसार मैं भ्रमता संता भोगवै है । इहां दुःखतौ अनंतां हैं हजारा कहनें तैं प्रसिद्ध अपेक्षा बहुलता जनाई है ॥ ९५ ॥ आगैं सम्यक्त्व मिथ्यात्व भाव के कथनकूं संकोच है; -
गाथा -- सम्म गुण सिच्छ दोसो मणेण परिभाविऊण तं कुणसु । जं ते मणस्स रुच्च किं बहुणा पलविणं तु ॥ ९६॥