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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका।
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तिसमैं नाही प्रवत्र्ते हैं, ऐसे हैं ते मुनि मोक्षमार्गमैं ग्रहण किये हैं माने
हैं॥
__भावार्थ-मुनि हैं ते लौकिक कष्टनि रहित हैं जैसा जिनेश्वर मोक्षमार्ग बाह्य अभ्यंतर परित्रहते रहित नग्न दिगंबररूप कह्या है तैसेमैं प्रवर्ते हैं ते ही मोक्षमार्गी हैं, अन्य मोक्षमार्गी नाही हैं ॥ ८० ॥ ___ आण फेरि मोक्षमार्गीकी प्रवृत्ति कहैं हैं;-- गाथा-उद्धद्धमज्झलोये केई मज्झं ण अहयमेगागी ।
इयभावणाए जोई पावंति हु सासयं ठाणं ॥८१॥ संस्कृत-उधिोमध्यलोके केचित् मम न अहकमेकाकी।
इति भावनया योगिनःप्राप्नुवंति स्फुटं शाश्वतं स्थानं ॥ अर्थ--मुनि ऐसी भावना करै--उप्रलोक मध्यलोक अधोलोक इनि तीनूं लोकमैं मेरा कोई भी नांही है, मैं एकाकी आत्माहूं, ऐसी भावना करि योगी मुनि प्रगटपण शाश्वता सुख है ताहि पावै है ॥ ___ भावार्थ-मुनि ऐसी भावना करै जो त्रिलोकमैं जीव एकाकी है याका संबंधी दूजा कोई नांही है, ये परमार्थरूप एकत्व भावना है सो जा मुनिकै ऐसी भावना निरन्तर रहे है सो ही मोक्षमार्गी है, जो भेष लेकरि भी लौकिकजननिसूं लाल पाल राखै है सो मोक्षमार्गी नाही ॥ ८१॥
आगँ फेरि कहै है;--- गाथा-देवगुरूणं भत्ता णिव्वेयपरंपरा विचिंतिता।
झाणरया सुचरित्ता ते गहिया मोक्खमग्गम्मिः।।८२॥ संस्कृत-देवगुरूणां भक्ताः निर्वेदपरंपरां विचिन्तयन्तः ।
ध्यानरताः सुचरित्राः ते गृहीताः मोक्षमार्गे ॥८२॥ ___ अर्थ-जे मुनि देव गुरुनिके भक्त हैं बहुरि निर्वेद कहिये संसार देह भोगते विरागताकी परंपराकू चितवन करें है, बहुरि ध्यानके विर्षे