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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
यातें कहै है जो — हे मित्र ! ऐसें तिर्यंच मनुष्य जन्मविषै बहुतकाल बहुतवार उपजि करि अपमृत्यु कहिये कुमरण तिससंबंधी तीव्र महादु: खकूं प्राप्त भया ॥
भावार्थ-या संसारविषै प्राणीकी आयु तिर्येच मनुष्य पर्यायविर्षै अनेक कारणनितैं छिदै है तातैं कुमरण होय है तातैं मरतैं तीव्र दु:ख होय है तथा खोटे परिणामनितैं मरणकरि फेरि दुर्गतिही मैं पड़ें है, ऐसैं यह जीव संसारमैं महादु:ख पावै है यातें आचार्य दयालु होय बारबार दिखावैं हैं अर संसारतैं मुक्त होनें का उपदेश करैं हैं ऐसें जाननां ॥ २५-२६-२७॥ आर्गै निगोदका दुःखकूं कहै है; --
गाथा - छत्तीसं तिणि सया छावट्टिसहस्सवारमरणाणि । अंतोमुहुत्तमज्झे पत्तोसि निगोयवासम्म ॥ २८ ॥ संस्कृत - पत्रिंशत् त्रीणि शतानि षट्षष्टिसहस्रवारमरणानि । अन्तर्मुहूर्त्तमध्ये प्राप्तोऽसि निकोतवासे ॥ २८ ॥
अर्थ — हे आत्मन् ! तू निगोदके वासमैं एक अंतमुहूर्त्तमैं छ्यासठ हजार तीनसैं छत्तीस वार मरणकूं प्राप्तहूवा ।
भावार्थ - निगोद में एक श्वासकै अठारवें भाग प्रमाण आयु पावै है तहां एक मुहूर्त्तकै सैंतीससै तिहत्तरि श्वासोच्छ्वास गिणै है तिनिमैं 'छत्तीस सैपिच्यासी श्वासोच्छ्वास अर एक श्वासका तीसरा भाग के छ्यासठ हजार तीन से छत्तीस वार निगोद मैं जन्म मरण होय है ताके दुःख यह प्राणी सम्यग्दर्शनभाव पाये विना मिथ्यात्वका उदयकै वशीभूत भया सहै है । भावार्थ - अंतर्मुहूर्त में छ्यासठ हजार तीनसै छत्तीस वार जामन मरण कह्या सो अव्यासी श्वास वाटि मुहूर्त्त ऐसा अन्तर्मुहूर्त्त - वि जाननां ॥ २८ ॥