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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित- २८३ संस्कृत-ते मे त्रिभुवनमहिताः सिद्धाः शुद्धाः निरंजनाः नित्याः।
ददतु वरभावशुद्धिं दर्शने ज्ञाने चारित्रे च ॥१६३॥ अर्थ-सिद्ध भगवान हैं ते मोकू दर्शन ज्ञान वि. अर चारित्रवि. श्रेष्ठ उत्तमभावकी शुद्धता द्यो, कैसे हैं सिद्ध भगवान तीन भवनकरि पूजनीक है, बहुरि कैसे हैं-शुद्ध हैं द्रव्यकर्म नोकर्मरूप मलकरि रहित हैं, बहुरि कैसे हैं-निरंजन हैं रागादिकर्म करि राहेत हैं, बहुरि जिनके कर्मका उपजनां नांही है, बहुरि कैसे है नित्य हैं पाये स्वभावका फेरि नाश नाही है। ___ भावार्थ---आचार्य शुद्धभावका फल सिद्ध अवस्था, अर जे निश्चय-- करि इस फलकू प्राप्त भये सिद्ध, तिनि” यही प्रार्थना करी है जो शुद्ध. भावकी पूर्णता हमारे होहू ॥ १६३ ॥ ___ आज भावके कथनकू संकोचे है;गाथा-किं जंपिएण बहुणा अत्थो धम्मो य काममोक्खोय।
अण्णे वि य वावारा भावम्मि परिठिया सव्वे ॥१६४ संस्कृत-किं जल्पितेन बहुना अर्थः धर्मः च काममोक्षः च ।
अन्ये अपि च व्यापाराः भावे परिस्थिताः सर्वे १६४ अर्थ-आचार्य कहे है जो बहुत कहनें करि कहा ? धर्म अर्थ काम मोक्ष बहुरि अन्य जो किछ व्यापार हे सो सर्वही शुद्धभावके वि समस्तपणांकरि तिष्ठया है ॥ __ भावार्थ—पुरुषके च्यार प्रयोजन प्रधान हैं-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । बहुरि अन्यभी जो किछू मंत्रसाधनादिक व्यापार हैं ते आत्माके शुद्ध चैतन्य परिणामस्वरूप भावविर्षे तिष्ठें हैं, शुद्धभावतें सर्व सिद्धि है ऐसा संक्षेपकरि कहनां जांणों, बहुत कहा कहना ? ॥ १६४ ॥