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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३१७. ___ आगें कहै है जो-ध्यानी मुनि ऐसा भया परमात्माकू ध्यावै है;गाथा-तिहि तिण्णि धरवि णिचं तियरहिओ तह तिएण
परियरिओ। दोदोसविप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई ॥४४॥ संस्कृत-त्रिभिः त्रीन् धृत्वा नित्यं त्रिकरहितः तथा त्रिकेग
परिकरितः । द्विदोषविप्रमुक्तः परमात्मानं ध्यायते योगी ॥४४॥ अर्थ-'त्रिभिः' कहिये मन वचन कायकरि, “त्रीन् ” कहिये वर्षा शीत उष्ण तीन कालयोग तिनिहि धरि करि, बहुरि त्रिकरहित कहिये माया मिथ्या निदान तीन शल्य तीनकार रहित भया, तथा “ त्रिकेण परिकरितः" दर्शन ज्ञान चारित्र करि मंडित भया, बहुरि दो दोष कहिये राग द्वेष तेही भये दोष तिनिकरि रहित भया योगी ध्यानी मुनि है सो परमात्मा जो सर्वकर्मरहित शुद्ध परमात्मा ताकू ध्यावै है ॥ . __ भावार्थ-मन वचन कायकरि तीन काल योग धरि परमात्माकू ध्यावै सो ऐसे कष्ट मैं दृढ रहै तब जाणिये याकै ध्यानकी सिद्धि है, कष्ट आये चिगिजाय तब ध्यानकी सिद्धि काहेकी ? बहुरि कोई प्रकारकी चित्तमैं शल्य रहै तब चित्त एकाग्र होय नाही तब ध्यान कैसैं होय ? तातें शल्य रहित कह्या, बहुरि श्रद्धान ज्ञान आचरण यथार्थ न होय तब ध्यान काहेका तारौं दर्शन ज्ञान चारित्र मंडित कह्या, बहुरि राग द्वेष इष्ट अनिष्ट बुद्धि रहै तब ध्यान कैसे होय ? तातैं परमात्माका ध्यान करै सो ऐसा होय करै, यह तात्पर्य है ॥ ४४ ॥ ___ आनें कहै है जो-ऐसा होय सो उत्तम सुखवू पावै है;गाथा-मयमायकोहरहिओ लोहेण विवजिओ य जो जीवो।
णिम्मलसहावजुत्तो सो पावइ उत्तम सोक्खं ॥४५॥