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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
संस्कृत - मदमायाक्रोधरहितः लोभेन विवर्जितश्व यः जीवः । निर्मलस्वभावयुक्तः सः प्राप्नोति उत्तमं सौख्यम् ४५ अर्थ — जो जीव मद माया क्रोध इनिकरि रहित होय बहुरि लोभकर विशेषकर रहित होय सो जीव निर्मल विशुद्ध स्वभावयुक्त भया उत्तम सुखकं पावै है |
भावार्थ — लोक मैं ऐसें है जो मद कहिये अतिमानी बहुरि माया कपट अर क्रोध इनिकरि रहित होय अर लोभकीर विशेष रहित होय सो सुख पावै है, तीव्रकषायी अति आकुलतायुक्त होय निरंतर दुखी रहै है; सो यह रीति मोक्षमार्ग मैं भी जाणूं जो क्रोध मान माया लोभ च्यार कषायतें रहित होय है तब निर्मल भाव होय तब यथाख्यात चारित्र पाय उत्तम सुख पावै है ॥ ४५ ॥
आगे कहै है जो विषय कषायनि मैं आसक्त है परमात्मा की भावनात रहित है रौद्रपरिणामी है सो जिनमतसूं पराङ्मुख है सो मोक्षके सुखनिकं नांही पा है, -
गाथा - विसयकसाएहि जुदो रुदो परमप्पभावरहियमणो ।
सोलह सिद्धिमुहं जिण मुद्दपरम्मुह जीवो ॥ ४६ ॥ संस्कृत - विषयकषायैः युक्तः रुद्रः परमात्मभावरहितमनाः ।
सः न लभते सिद्धिसुखं जिनमुद्रापराङ्मुखः जीवः ४६ अर्थ —जो जीव विषय कषायनिकरि युक्त है, बहुरि रुद्रपरिणामी है हिंसादिक विषयकप्रायादिक पापनिविषै हर्षसहित प्रवर्तें है, बहुरि पर - मात्मक भावनाकर रहित है चित्त जाका ऐसा जीव जिनमुद्रातैं परामुख है सो ऐसा सिद्धिसुख जो मोक्षका सुख ताहि नांही पावै है |
भावार्थ - जिनमत मैं ऐसा उपदेश है जो हिंसादिक पापनि विरक्त अर विषय कषायनिमैं आसक्त नांही अर परमात्माका स्वरूप जाणि