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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ — दर्शनविषै एक तौ जिनका स्वरूप है सो जैसा लिंग जिनदेव धाय सो लिंग है, बहुरि दूजा उत्कृष्ट श्रावकनिका लिंग है, 'बहुरि तीजा 'अवरट्ठिय' कहिये जघन्य पद विषै स्थित ऐसी आर्यिका - निका लिंग है, बहुरि चौथा लिंग दर्शन विषै नांही है ॥
भावार्थ — जनमत विषै तीन ही लिंग कहिये भेष कहैं हैं । एक तौ यथाजातरूप जिनदेव धान्य सो है, बहुरि दूजा उत्कृष्ट श्रावक ग्यारमी प्रतिमा धारकका है, बहुरि तीजा स्त्री आर्यिका होय ताका है, बहुरि चौथा अन्य प्रकारका भष जिनमत मैं नांही है जे मानें हैं ते मूलसंघ बाह्य हैं ॥ १८ ॥
आगें हैं हैं - ऐसा बाह्य लिंग होय ताकै अंतरंग श्रद्धान ऐसा होय है सो सम्यग्दृष्टी है;—-
गाथा - छह दब्ब णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा । सद्दहइ ताण रूवं सो सहिही मुणेव्व ॥ १९ ॥ संस्कृत - षट् द्रव्याणि नव पदार्थाः पंचास्तिकायाः सप्त तत्वानि निर्दिष्टानि ।
श्रद्दधाति तेषां रूपं सः सदृष्टिः ज्ञातव्यः ॥ १९ ॥
अर्थ — छह द्रव्य नव पदार्थ पांच अस्तिकाय सप्त तत्व ये जिनवचनमैं कहे हैं तिनिका स्वरूपकूं जो श्रद्धान करै सो सम्यग्दृष्टी जाननां ॥ १९॥
भावार्थ-जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काल ये तो छह द्रव्य हैं, बहुरि जीव अजीव अश्रव बंध संवर निर्जरा मोक्ष पुण्य पाप ये नव पदार्थ हैं, छह द्रव्य काल बिना पंचास्तिकाय हैं । पुण्य पाप विना - नव पदार्थ सप्त तत्व हैं । इनिका संक्षेप स्वरूप ऐसा - जो जीवन तै