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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
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भावार्थ—आत्माका स्वाभाविक परिणामकूं भाव कहिये है तिमी लिंग कहिये चिह्न तथा लक्षण तथा रूप होय सो भावलिंग है । तहां आत्मा अमूर्त्तीक चेतनारूप है ताका परिणाम दर्शन ज्ञान है तिस मैं कर्मके निमित्ततैं बाह्य तौ शरीरादिक मूर्तीक पदार्थका संबंध है अर अंतरंग मिथ्यात्व अर रागद्वेष आदि कपायनिका भाव है । तातें कहै है— जो बाह्य तौ देहादिक परिग्रहतै रहित अर अन्तरंग रागादिक परिणामविषै अहंकाररूप मानकषाय परभावनिविषै आपा माननां तिस भावतैं रहित होय, अर अपना दर्शनज्ञानरूप चेतनभाव ताविषै लीन होय सो भाव लिंग है, यह भाव होय सो भावलिंगी साधु है ॥ ५६ ॥ आ याही अर्थं स्पष्टकरि कहै है :अनुष्टुपछंद - ममतिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवहिदो | आलंबणं च मे आदा अवसेसाई वोसरे || ५७॥ संस्कृत - ममत्वं परिवर्जामि निर्ममत्वमुपस्थितः ।
आलंबनं च मे आत्मा अवशेषानि व्युत्सृजामि ॥५७॥ अर्थ — भावलिंगीमुनिके ऐसे भाव होय हैं- मैं परद्रव्य अर परभावनितैं ममत्व कहिये अपनां माननां ताकूं छोडूहूं बहुरि मेरा निजभाव गमत्वरहित है ताकूं अंगीकार करि तिष्टू हूं, अब मेरै आत्माहीका अवलंवन है और सर्वही छोडूहूँ |
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भावार्थ — सर्व परद्रव्यनिका आलंबन छोड़ि अपनें आत्म स्वरूप - विषै तिष्ठै ऐसा भावलिंग है ॥ ५७ ॥
आगे कहै है जो - ज्ञान दर्शन संयम त्याग संवर योग ये भाव भावलिंगी मुनिकै होय हैं ते अनेक है तौउ आत्मा ही है तातैं इनितैं भी अभेदका अनुभव करै है;
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