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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
२१ सम्यक्त्वरूप जलप्रवाह वहै है सो सम्यक्त्ववान पुरुष इस कलिकाल - संबंधी वासना जो कुदेव कुशास्त्र कुगुरु इनके नमस्कारादिरूप अतीचाररूप रज भी नांही लगावै है, अर ताकै मिथ्यात्व संबंधी प्रकृतिनिका आगामी वंध भी नांही होय है ॥ ७ ॥
आर्गै कहैं हैं, जे दर्शनभ्रष्ट हैं अर ज्ञान चारित्रतैं भी भ्रष्ट हैं ते आप तौ भ्रष्ट हैं ही परन्तु अन्यकूं भ्रष्ट करें हैं, यह अनर्थ है, - गाथा - जे दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य ।
एदे भट्ट वि भट्टा सेसं पि जणं विणासंति ॥ ८ ॥ छाया - ये दर्शनेषु भ्रष्टाः ज्ञाने भ्रष्टाः चारित्रभ्रष्टाः च ।
एते भ्रष्टात् अपि भ्रष्टाः शेषं अपि जनं विनाशयति ॥
अर्थ — जे पुरुष दर्शनविषै भ्रष्ट हैं बहुरि ज्ञान चारित्र भी भ्रष्ट हैं ते पुरुष भ्रष्टनिविषै भी विशेष भ्रष्ट हैं। केई तौ दर्शनसहित हैं अर ज्ञान चारित्र जिनके नांही है, बहुरि केई अंतरंग दर्शनतें भ्रष्ट हैं तौऊ ज्ञान चारित्र नीकैं पालै हैं, अर जे दर्शन ज्ञान चारित्र इनि तीननितें भ्रष्ट हैं ते तौ अत्यंत भ्रष्ट हैं, ते आपतौ भ्रष्ट हैं ही परन्तु शेष कहिये आप सिवाय अन्य जन हैं तिनिकूं भी नष्ट करें हैं ॥
भावार्थ — इहां सामान्य वचन है तातैं ऐसा भी आशय सूचै है जो सत्यार्थ श्रद्धान ज्ञान चारित्र तौ दूरिही रहौ जो अपने मतकी श्रद्धा ज्ञान आचरणतैं भी भ्रष्ट हैं ते तौ निरर्गल स्वेच्छाचारी हैं ते आप भ्रष्ट हैं तैसें ही अन्य लोककूं उपदेशादिक करि भ्रष्ट करे हैं तथा तिनिकी प्रवृत्ति देखि स्वयमेव लोक भ्रष्ट होय हैं तातैं ऐसे तीव्रकषायी निषिद्ध हैं तिनकी संगति करनां भी उचित नांहीं ॥ ८॥