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३३८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिततिस मुनिकै होय है; यह न मा सो अज्ञानी है जाळू धर्मध्यानका स्वरूपका ज्ञान नाही ॥ __भावार्थ-जिनसूत्रमैं इस भरतक्षेत्र पंचमकालमैं आत्माभावनाविपैं स्थित मुनिकै धर्मध्यान कह्या है; जो यह न माने सो आज्ञानी है, जाकू धर्मध्यानके स्वरूपका ज्ञान नांहीं ॥ ७६ ॥ ___ आगैं कहैं हैं---जो अबार कालमैंभी रत्नत्रयका धारी मुनि होय सो स्वर्गविर्षे लौकान्तिकपणां इन्द्रपणां पाय तहांत चय मोक्ष जाय है, ऐसे जिनसूत्रमैं कह्या है;गाथा-अन्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदत्तं ।
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदि जंति ॥७७॥ संस्कृत-अद्य अपि त्रिरत्नशुद्धा आत्मानं ध्यात्वा लभंते इन्द्रत्वम् . लौकान्तिकदेवत्त्वं ततः च्युत्वा निवृतिं यांति ॥७७॥
अर्थ-अबार इस पंचमकालमैंभी जे मुनि सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र शुद्धकरि संयुक्त होय हैं ते आत्माकू ध्यायकरि इंद्रपणां पाएँ हैं तथा लौकांतिकदेवपणां पा हैं, बहुरि तहांतें चय करि निर्वाणकू प्राप्त होय
____ भावार्थ-कोई कहै है जो अबार इस पंचमकालभैं जिनसूत्रमैं मोक्ष होनां कया नाहीं तातै ध्यानका करनां तौ निष्फल खेद है, ताकू कहे है रे भाई ! मोक्ष जानो निषेध्यो हे अर शुकध्यान निषेध्यो है; धर्मध्यान तौ निषेध्या नांही अबार जे मुनि रत्नत्रयकरि शुद्ध भये धर्मध्यानमैं लीन होय आत्माकू ध्यावें हैं ते मुनि स्वर्गमैं इन्द्रपणां पाएँ हैं अथवा लौकान्तिकदे व एकाभवतारी है तिनिमैं जाय उपजै हैं तहांतें चयकरि मनुष्य होय मोक्ष पा हैं । ऐसे धर्मध्यानते परंपरा मोक्ष होय तब सर्वथा निषेध