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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
भावार्थ-द्रव्यलिंग धारि किछू तप करै ताकरि किछू सामर्थ्य वधै तब कळू कारण पाय क्रोध करि आपका अर परका उपद्रव करनेका कारण बनावै तातें द्रव्यलिंग भावसहित धारणाही श्रेष्ठ है अर केवल द्रव्यलिंग तौ उपद्रवका कारण होय है, ऐसैं याका उदाहरण बाहु मुनिका बताया ताकी कथा ऐसैं;-दक्षिणदिशामैं कुंभकारकटकनगरविर्षे दंडकनामा राजा, ताकै वालकनाम मंत्री, तहां अभिनंदन आदि पांचसौं मुनि आये, तिनिमैं एक खंडकनामा मुनि था, ता. वालकनाम मंत्रिकू वादविर्षे जीत्या, तब मंत्री क्रोधकरि एक भांडकू मुनिका रूप कराय राजाकी राणी सुव्रता सहित रमता राजाकू दिखाया, अर कही जो देखो-राजाकै ऐसी भक्ति है जो अपनी स्त्री भी दिगंबरकू रमबा नैं दई है तब राजा दिगम्बरनिः क्रोध करि पांचसै मुनिनिळू घाणीमैं पिलवाया, ते मुनि उपसर्ग सहि परमसमाधि करि सिद्धि प्राप्त हुये । पीछे तिसनगर वाहुनामा मुनि आया ताळू लोकनि म किया जो इहां राजा दुष्ट है सो तुम नगरमैं प्रवेश मति करौ आगें पांचसै मुनि घाणीमैं पेल्या है सो तुमकू भी तैसैंही करेगा। तब लोकनिके वचनकरि बाहु मुनिकू क्रोध उपज्या तब
अशुभतैजससमुद्रात करि राजाकू मंत्रीसहित सर्वनगरकू भस्म किया। 'राजा मंत्री सातचैं नरक रौरवनामा विलामैं पडे तहांही बाहुमुनिभी मरिकरि रौरवविलामैं पड्या । ऐसें द्रव्यलिंगमैं भावके दोषः उपद्रव होय है, तातै भावलिंगका प्रधान उपदेश है ॥ ४९ ॥ ___ आगैं इसही अर्थपरि दीपायनमुनिका उदाहरण कहै है, गाथा-अवरो वि दव्वसवणो दसणवरणाणचरणपब्महो ।
दीवायणुत्ति गामो अणंतसंसारिओ जाओ ॥५०॥ संस्कृत--अपरः अपि द्रव्यश्रमणः दर्शनवरज्ञानचरणप्रभ्रष्टः।
दीपायन इति नाम अनंतसांसारिकः जातः ॥५०॥