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३९४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित___ अर्थ-जे पुरुष यौवन अवस्था सहित हैं अर बहुतनिकू प्रिय लागै ऐसा लावण्य ताकार सहित है अर शरीरकी कांति प्रभाकरि मंडित हैं ऐसे, अर सुन्दररूप लक्ष्मी संपदाकरि गर्वित हैं मदोन्मत्त हैं अर शील अर गुणनिकरि वर्जित हैं तिनिका मनुष्यजन्म निरर्थक है ॥ __ भावार्थ-मनुष्यजन्म पाय शीलकरि रहित हैं विषयनिमैं आसक्त रहैं, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र जे गुण तिनिकरि रहित हैं, अर यौवन अवस्थामैं शरीरकी लावण्यता कांतिरूप सुंदर धन संपदा पाय इनिका गर्वकरि मदोन्मत्त रहैं तौ तिनि. मनुष्यजन्म निष्फल खोया; मनुष्यजन्ममैं तो सम्यग्दर्शनादिकका अंगीकार करनां अर शील संयम पालनेयोग्य था सो अंगीकार किया नांही तब निष्फलही गया कहिये । बहुरि ऐसा भी जना या है जो पहली गाथामैं कुमत कुशास्त्रकी प्रशंसा करने वालेका ज्ञान निरर्थक कह्याथा तैसैं इहां रूपादिकका मद करै तौ यह भी मिथ्या त्वका चिह्न है सो मद करै सो मिथ्यादृष्टी ही जाननां । तथा लक्ष्मी रूप यौवन क्रांतिकरि मंडित होय अर शीलरहित व्यभिचारी होय तौ ताकी लोकमैं निंदाही होय है ॥ ___ आगैं कहै है जो बहुत शास्त्रनिका ज्ञान होतें भी शीलही उत्तम
गाथा-वायरणछंदवइसेसियववहारणायसत्थेसु ।
वेदेऊण सुदेसु य तेव सुयं उत्तमं सीलं ॥१६॥ संस्कृत-व्याकरणछन्दोवैशेषिकव्यवहारन्यायशास्त्रेषु ।
विदित्वा श्रुतेषु च तेषु श्रुतं उत्तमं शीलम् ॥१६॥ अर्थ-व्याकरण छंद वैशेषिक व्यवहार न्यायशास्त्र ये शास्त्र बहुरि श्रुत कहिये जिनागम इनिविर्षे तिनि व्याकरणादिककू अर श्रुत कहिये जिनागम• जानिकरिभी इनिविर्षे शील होय सो ही उत्तम है ॥