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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ--जो लिंग धारि करि स्त्रीनिके समूहविौं तिनिका विश्वासकरि तथा तिनिकू विश्वास उपजाय दर्शन ज्ञान चारित्र दे है तिनिकू सम्यक्त्व बतावै है पढनां पढावनां ज्ञान देहै, दीक्षा दे है, प्रवृत्ति सिखावै है, ऐसैं विश्वास उपजाय तिनिमैं प्रवत्र्ते है सो ऐसा लिंगी पार्श्वस्थ तैं भी निकृष्ट है, प्रगट भाव करि विनष्ट है श्रमण नाही।
भावार्थ-लिंग धारि स्त्रीनिकू विश्वास उपजाय तिनिघ्र निरंतर पढनां पढावनां लाल पाल राखै ताकू जानिये-याका भाव खोटा है। पार्श्वस्थ भ्रष्ट मुनिकू कहिये है तिसौं भी ये निकृष्ट है, ऐसेकू साधु न कहिये ॥ २०॥
आगँ फेरि कहै है;गाथा-पुंच्छलिपरि जो मुंजइ णिचं संथुगदि पोसए पिंडं ।
पावदि वालसहावं भावविणहो ण सो सवणो ॥२१॥ संस्कृत-पुंश्चलीगृहे यः सुंक्ते नित्यं संस्तौति पुष्णाति पिंडं ।
प्राप्नोति बालस्वभाव भावविनष्टः न सः श्रमणः २१ अर्थ--जो लिंगधारी अर पुंश्चली जो व्यभिचारिणी स्त्री ताके घर भोजन लेहै आहार करै है अर नित्य ताकी स्तुति करै है—जो यह बडी धर्मात्मा है याकै साधुनिकी बडी भक्ती है ऐसे नित्य ताळू सराहै ऐसैं पिंडकू पालै है सो ऐसा लिंगी बालस्वभावकू प्राप्त होय है, अज्ञानी है, भावकरि विनष्ट है, सो श्रमण नांही है ॥
भावार्थ—जो लिंग धारि व्यभिचारिणीका आहार खाय पिंड पालै ताकी नित्य सराहना करै, तब जानिये यह भी व्यभिचारी है अज्ञानी है ताळू लज्जाभी न आवै; ऐसैं भावकरि विनष्ट है मुनिपणांके भाव नाही, तब मुनि काहेका ? ॥ २१ ॥