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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २४७ वरणौ तौ अनंतज्ञान आच्छादित है, अर केवलदर्शनावरण” अनंतदर्शन आच्छादित है, अर मोहनीयतै अनंतसुख प्रगट न होय है अर अंतरायतें अनंतवीर्य प्रग्ट न होय है सो इनिका नाश करनां । बहुरि च्यारि अघाति कर्म हैं तिनितै अव्याबाध अगुरुलघु सूक्ष्मता अवगाहना ये गुण प्रगट न होय है, इनि अघातिकर्मनिको प्रकृति एकसौ एक है। तिनि घातिकर्मनिका नाश भये अघातिकर्मनिका स्वयमेव अभाव होय है, ऐसें जाननां ॥ ११९॥ __आरौं इनि कर्मनिका नाश होनेकू अनेक प्रकार उपदेश है ताकू संक्षेपकरि कहै है;-- गाथा-सीलसहस्सद्वारस चउरासीगुणगणाण लक्खाई।
भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्पलावेण किंबहुणा॥१२० संस्कृत-शीलसहस्राष्टादश चतुरशीतिगुणगणानां लक्षाणि ।
भावय अनुदिनं निखिलं असत्प्रलापेन किंबहुना१२० __ अर्थ-शील तौ अठारह हजार भेदरूप है बहुरि उत्तरगुण चौरासी लाख हैं तहां आचार्य कहै है जो-हे मुने ! बहुत झूठे प्रलापरूप निरर्थक वचनकरि कहा ? इनि शीलनिकू अर उत्तरगुणनिकू सर्वकू तू निरन्तर भाय, इनिकी भावना चितवन अभ्यास निरन्तर राखे, इनिकी प्राप्ति होय तैसें करि ॥ __भावार्थ-आत्मा जीवनामा वस्तु है सो अनंतधर्मस्वरूप है, संक्षेपकरि याकी दोय परिणति हैं, एक स्वाभाविक एक विभावरूप । तामैं स्वाभाविक तौ शुद्धदर्शनज्ञानमयी चेतनापरिणाम है; अर विभावपरिणाम. कर्मके निमित्त हैं, ते प्रधानकरि तौ मोहकर्मके निमित्ततें भये संक्षेपकरि मिथ्यात्व रागद्वेष हैं तिनिके विस्तारकरि अनेक भेद हैं । बहुरि अन्यकर्मके उदयकरि विभाव होय हैं तिनिमैं पौरुष प्रधान नाही ताते