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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषाघचनिका। ३४९ लोक हमको कहा कहैं गे? हमारी या लोकमैं प्रतिष्ठा जायगी ? ऐसैं तौ लज्जाकरि वंदै पूजे । वहुरि भय ऐसैं जो-इनिकू राजादिक मानें हैं, हम न मानेंगे तो हम ऊपरि कळू उपद्रव आवैगा ऐसैं भयकरि बंद पूजै । बहुरि गारव ऐसैं जो हम बड़े हैं महंत पुरुष हैं, सर्वहीका सन्मान करें हैं इनिकार्यनिमैं हमारी बडाई है, ऐसे गारवकरि बंदनां पूजनां होय है । ऐसें मिथ्यादृष्टीके चिह्न कहे ॥ ९२ ॥ ___ आगें इसही अर्थकू दृढ करते संते कहैं हैं;गाथा-सपरावेक्खं लिंग राई देवं असंजयं बंदे ।
माणइ मिच्छादिट्टी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्ती॥९३॥ संस्कृत-स्वपरापेक्ष लिंगं रागिणं देवं असंयतं वन्दे ।
___ मानयति मिथ्यादृष्टिः न स्फुटं मानयति शुद्धसम्यक्ती ९३ __ अर्थ-स्वपरापेक्ष तौ लिंग जो कळू आप लौकिक प्रयोजन मनमैं धारि भेष ले सो स्वापेक्ष है, बहुरि काहू परकी अपेक्षातै धारै काहूके आग्रह” तथा राजादिकका भयतें धारै सो परापेक्ष है । बहुरि रागी देव जाकै स्त्री आदिका राग पाइये, बहुरि संयमरहित इनिकू ऐसैं कहै जो मैं बंदू हूं; तथा तिनिकू मानैं श्रद्धै सो मिथ्यादृष्टी है। बहुरि शुद्धसम्यक्त्व भये संतै तिनिकू न मानें है, श्र? नाही, वंदै पूजै नांही ॥ ___ भावार्थ—ये कहे तिनितूं मिथ्यादृष्टीकै प्रीति भक्ति उपजै है, जो निरतीचार सम्यक्त्ववानहै सो इनिकू न मानै है ।। ९३ ॥ गाथा--सम्माइटी सावय धम्मं जिणदेवदेसियं कुणदि ।
विवरीयं कुव्वंतो मिच्छादिही मुणेयव्वो ॥ ९४॥ संस्कृत-सम्यग्दृष्टिः श्रावकः धर्म जिनदेवदेशितं करोति ।
विपरीतं कुर्वन् मिथ्यादृष्टिः ज्ञातव्यः ॥९४ ॥