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३०८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित___ अर्थ--जो योगी ध्यानी मुनि व्यवहारमैं सूता है सो अपनां स्वरूपका कार्यविथें जागे है, बहुरि जो व्यवहारविर्षे जागे है सो अपना आत्मकार्यवि. सूता है ॥ ___ भावार्थ-मुनिकै संसारी व्यवहार तौ कळू है नाही, अर जो है तो मुनि काहेका ? पाखंडी है । बहुरि धर्मका व्यवहार संघमैं रहनां महाव्रतादिक पालनां ऐसे व्यवहारमैं भी तत्पर नांही हैं, सर्व प्रवृत्तिकी निवृत्ति करि ध्यान करें हैं, सो व्यवहारमैं सूता कहिये, अर अपने आत्मस्वरूपमैं लीन भया देखे है जाणे है सो अपने आत्मकार्यविर्षे जागे है । बहुरि जो इस व्यवहारमैं तत्पर है सावधान है स्वरूपकी दृष्टि नाही है सो व्यवहारमैं जागता कहिये ॥ ३१॥ ___ आगैं यह कहे है जो-योगी पूर्वोक्त कथनकं जाणि व्यवहारकू छोडि आत्मकार्य करे है;-- गाथा-इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं ।
झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणं वरिंदेहिं ॥३२॥ संस्कृत-इति ज्ञात्वा योगी व्यवहारं त्यजति सर्वथा सर्वम् ।
ध्यायति परमात्मानं यथा भणितं जिनवरेन्द्रैः ॥३२॥ अर्थ-ऐसे पूर्वोक्त कथनकू जाणिकरि योगी ध्यानी मुनि है सो व्यवहार सर्व प्रकारही छोडै है अर परमात्माकू व्या है, केसैं ध्यावै हैजैसैं जिनवरेंद्र तीर्थकर सर्वज्ञदेवनें कह्या है तैसैं ध्यावै है ॥ ___ भावार्थ-सर्वथा सर्व व्यवहारकू छोडनां कह्या, ताका तो आशय यह जो-लोकव्यवहार तथा धर्मव्यवहार सर्वही छोडे ध्यान होय है । अर जैसैं जिनदेवनैं कह्या तैसैं परमात्माका ध्यान करनां सो अन्यमती
१-मु. सं. प्रतिमें 'जिणवरिंदेण' ऐसा पाठ है, जिसकी संस्कृत 'जिनवरेन्द्रेण' है।