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२५६ पंडित जयचंद्रजी झावड़ा विरचितकर्मरूपी बीज दग्ध हो जाय है, या” संसाररूप अंकुरा फेरि नाही होय
भावार्थ-संसारका बीज ज्ञानावरणादिक कर्म है सो कर्म भावश्रमणकै ध्यानरूप अग्निकरि दग्ध हो जाय है तातै फेरि संसाररूप अंकुरा काहेरौं होय ? तातै भावश्रमण होय धर्म शुक्लध्यानतें कर्मका नाश करना योग्य है, यह उपदेश है । कोई सर्वथा एकांती अन्यथा कहै जो कर्म अनादि है ताका अंत भी नाही, ताका यह निषेध भी है, बीज अनादि है सो एक बार दग्ध भये पीछै फेरि न ऊगै तैसें जाननां ॥ १२६ ।। ___ आगैं संक्षेपकरि उपदेश करै है,गाथा-भावसवणो वि पावइ सुक्खाई दुहाई दव्वसवणोय। _ इय गाउं गुणदोसे भावेण य संजुदो होइ ॥१२७॥ संस्कृत-भावश्रमणः अपि प्राप्नोति सुखानि दुःखानि
द्रव्यश्रमणश्च । इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुतः भव ॥१२७॥ अर्थ-भावश्रमण तो सुखनिकू पावै है बहुरि द्रव्यश्रमण है सो दुःखनिकू पावै है ऐसे गुण दोषनिकू जाणि हे जीव तू भावकरि संयुक्त संयमी होहु ।। ___ भावार्थ-सम्यग्दर्शनसहित तौ भावश्रमण होय है सो संसारका अभावकरि सुखनिकू पावै है, अर मिथ्यात्वसहित द्रव्यश्रमण भेषमात्र होय है सो संसारका अभाव न करि सकै है तातै दुःखनिळू पावै है यात उपदेश कर है जो दोऊका गुण दोष जाणि भावसंयमी होनां योग्य है, यह सर्व उपदेशका संक्षेप है ॥ १२७ ॥
आगँ फेरिभी याहीका उपदेश अर्थरूप संक्षेपकीर कहै है,