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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
विनयादि करें हैं तिनिकै भी बोधि कहिके दर्शन ज्ञान चरित्र ताकी प्राप्ति नांही है जातैं ते भी पाप जो मिथ्यात्व ताकी अनुमोदन करते हैं, करनां करावनां अनुमोदनां करनां समान कया है । इहां लज्जा तौ ऐसैंजो हम काहूका विनय नांहीं करेंगे तौ लोक कहेंगे ये उद्धत है मानी हैं ता हमकं तौ सर्वका साधन करनां, ऐसें लज्जाकरि दर्शनभ्रष्टका भी विनयादिक करे । बहुरि भय ऐसैं - जो ये राज्यमान्य है तथा मंत्र विद्यादिककी सामर्थ्ययुक्त है याका विनय नहीं करेंगे तो कछू हमारे ऊपरि उपद्रव करेगा, ऐसें भय करि विनय करै । बहुरि गारव तीन प्रकार कया है; रसगारव ऋद्धिगारव सातगाव । तहां रसगाव तो ऐसा जो मिष्ट इष्ट पुष्ट भोजनादि मिलिबो करै तब ताकरि प्रमादी रहै । बहुरि ऋद्धिगारव ऐसा जो कछू तपके प्रभाव आदिकर ऋद्धिकी प्राप्ति होय ताका गौरव आय जाय, ताकरि उद्धत प्रमादी रहै । बहुरि सातगौरव ऐसा जो शरीर नीरोग होय कछू क्लेशका कारण नहीं आवै तब सुखियापणां आय जाय, ताकरि मग्न रहै । इत्यादिक गारवभाव मस्ता
तैं किछू भले बुरेका विचार नहीं करै तब दर्शनभ्रष्टका भी विनय करबा लगिजाय इत्यादि निमित्त दर्शनभ्रष्टका विनय करें तौ यामैं मिध्यात्वकी अनुमोदना आवै ताकूं भला जानैं तब आप भी ता समान भया तब ताकै बोधि काहेकी कहिये ? ऐसें जाननां ॥ १३ ॥
गाथा - दुविहं पि गंथचायं तीसु वि जोएस संजमो ठादि । पाणम्मि करणसुद्धे उभसणे दंसणं होई ॥ १४ ॥ संस्कृत - द्विविधः अपि ग्रंथत्यागः त्रिषु अपि योगेषु संयमः
तिष्ठति ।
ज्ञाने करणशुद्धे उद्भभोजने दर्शनं भवति ॥ १४ ॥