Book Title: Ashtpahud
Author(s): Jaychandra Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 439
________________ ३९६ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित गाथा-सव्वे विय परिहीणा रूवाविरूवा वि वदिदसुवया वि। सीलं जेसु सुसील सुजीविद माणुसं तेसिं ॥१८॥ संस्कृत-सर्वेऽपि च परिहीनाः रूपविरूपा अपि पतित सुवयसोऽपि । शीलं येषु सुशीलं सुजीविदं मानुष्यं तेषाम् ॥ १८ ॥ अर्थ—जे सर्व प्राणीनिमैं हीन हैं कुलादिककरि न्यून हैं अर रूपकरि विरूप हैं सुन्दर नाही हैं बहुरि पतितसुवयसः कहिये अवस्थाकरि सुन्दर नांही हैं वृद्ध होय गये हैं अर जिनिविर्षे शील सुशील है स्वभाव उत्तम है कषायादिककी तीव्र आसक्तता नांही है तिनिका मनुष्यपणां सुजीवित है जीवनां भला है ॥ ___ भावार्थ-लोकमैं सर्वसामग्रीकरि जे न्यून हैं अर स्वभाव उत्तम है विषयकषायनिमैं आसक्त नांही हैं तो ते उत्तमहीं हैं तिनिका मनुष्यभव सफल है तिनिका जीतव्य प्रशंसा योग्य है ॥ १९ ॥ ___ आगें कहै है जो-जे ते भले उत्तम कार्य हैं ते सर्व शीलके परिवार हैं;गाथा-जीवदया दम सच्चं अचोरियं बंभचेरसंतोसे । सम्मइंसण णाणं तओ य सीलस्स परिवारो ॥१९॥ संस्कृत-जीवदया दमः सत्यं अचौर्य ब्रह्मचर्यसंतोषौ । सम्यग्दर्शनं ज्ञानं तपश्च शीलस्य परिवारः ॥१९॥ अर्थ-जीवदया इंद्रियनिका दमन सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य संतोष सम्यग्दर्शन ज्ञान तप ये सर्व शीलके परिवार हैं ॥ भावार्थ-शील ऐसा स्वभावका तथा प्रकृतिका नाम प्रसिद्ध है तहां मिथ्यात्वसहित कषायरूप ज्ञानकी परणति है सो तौ दुःशील है

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