________________
२९६
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
संस्कृत - यः देहे निरपेक्षः निर्द्वन्द्वः निर्ममः निरारंभः । आत्मस्वभावे सुरतः योगी सः लभते निर्वाणम् ॥ १२ ॥
अर्थ - जो योगी ध्यानी मुनि, देहविषै निरपेक्ष है देहकूं नही चाह है उदासीन है, बहुरि निर्द्वन्द्व है राग द्वेषरूप इच्छा अनिष्ट मांनितें रहित है, बहुरि निर्ममत्त्व है देहादिक विषै 'यह मेरा' ऐसी बुद्धितैं रहित है, बहुरि निरारंभ है या देहकै अर्थ तथा अन्य लौकिक प्रयोजनकै अर्थि आरंभ रहित है, बहुरि आत्मस्वभावविषै रत है लीन है निरन्तर स्वभाकी भावनासहित है सो मुनि निर्वाणकं पावै है |
भावार्थ — जो बहिरात्मा के भावकूं छोडि अन्तरात्मा होय परमात्मा मैं लीन होय है सो मोक्ष पावै है । यह उपदेश जनाया है ॥ १२ ॥ आगें बंधका अर मोक्षका कारणका संक्षेपरूप आगमका वचन कहै है;
गाथा - पदव्वरओ वज्झदि विरओ मुच्चेर विविहकम्मेहिं । एसो जिउवदेसो समासदो बंधमुक्खस्स ॥ १३॥ संस्कृत - परद्रव्यरतः बध्यते विरतः मुच्यते विविधकर्मभिः । एषः जिनोपदेशः समासतः बंधमोक्षस्य || १३ |
अर्थ — जो जीव परद्रव्यविषै रत है रागी है सो तौ अनेक प्रकारके कर्मनिकरि बंधे है कर्मनिका बंध करे है, बहुरि जो परद्रव्यविषै विरत है रागी नाही है सो अनेक प्रकारके कर्मनितैं छूटै है, यह बंधका अर मोक्षका संक्षेपकार जिनदेवका उपदेश है ॥
भावार्थ — बंध मोक्षके कारणकी कथनी अनेक प्रकार करि है ताका यह संक्षेप है—जो परद्रव्यसूं रागभाव सो तौ बंधका कारण अर विरागभाव सो मोक्षका कारण है, ऐसा संक्षेपकरि जिनेन्द्रका उपदेश हैः ॥ १३ ॥