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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
निके कारणनिकू सेवनां यह तो बडी भूलि है, ऐसें जानना ॥ २५ ॥ ___ आगै कहै है जो-संसारमैं रहै जेतें व्रत तप पालनां श्रेष्ठ कह्या परन्तु जो संसारतें नीसऱ्या चाहै है सो आत्माकू ध्यावो;गाथा—जो इच्छइ णिस्सरिहुं संसारमहण्णवाउ रुदाओ।
कम्मिधणाण डहणं सो झायइ अपयं सुद्धं ॥२६॥ संस्कृत-यः इच्छति निःसत्तुं संसारमहार्णवात् रुद्रात् ।
कर्मेन्धनानां दहनं सः ध्यायति आन्मानं शुद्धम् ॥२६॥ अर्थ- जो जीव रुद्र कहिये बडा विस्ताररूप जो संसाररूप समुद्र तातें नीसरणे• चाहै है सो जीव कर्मरूप इंधनका दहन करनेवाला जो शुद्ध आत्मा ताहि घ्यावै है ।। ___ भावार्थ-निर्वाणकी प्राप्ति कर्मका नाश होय तब होय है अर कर्मका नाश शुद्धात्माके ध्यान” होय है सो संवारतें नीसरि मोक्ष... चाहै है सो शुद्ध आत्मा जो कर्ममलते रहित अनंत चतुष्टयसहित परमात्माकू ध्यावै.है, मोक्षका उपाय या विना अन्य नाही है ॥ २६ ॥ ___ आगै आत्माकू कैसे ध्यावै ताकी विधि दिखावे है;-- गाथा-सव्वे कसाय मुत्तं गारवमयरायदोस्वामोहं ।
लोयववहारविरदो अप्पा झाएड झागत्थो ॥२७॥ संस्कृत-सर्वान् कषायान् मुक्त्वा गारवमदरागदोषव्यामोहम् ।
लोकव्यवहारविरतः आत्मानं ध्यायति ध्यानस्थः २७ __अर्थ--मुनि है सो सर्व कषायनिकू छोडि तथा गारव मद राग द्वेष तथा मोह इनिकू छोडिकरि अर लोकव्यवहारतें विरक्त भया ध्यान विषै तिष्ठया आत्माकू ध्यावै है ।। २७॥
१-मुद्रित सं. प्रतिमें "संसारमहण्णवस्स रुदस्स" ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत " संसारमहार्णवस्य रुद्रस्य " एसी है।