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२३० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm भावार्थ--यह प्राणी मैथुनसंज्ञाविधैं आसक्त भया गृहस्थपणां आदिक अनेक उपायकरि स्त्रीसेवनादिक अशुद्धभावकरि यशुभ कार्यनिमैं प्रवर्ते है ताकरि इस भयानक संसारसमुद्रविौं भ्रमै है तातें यह उपदेश है जो दशप्रकार अब्रह्मकू छोडि नव प्रकार ब्रह्मचर्यकं अंगीकार करौ। तहां दशविध अब्रह्म तौ ऐसैं-प्रथम तौ स्त्रीका चितवन होय १ पीछे देखनेकी चिंता होय २ पीछे निश्वास डारै ३ पीछे ज्वर उपजै ४ पाछै दाह उपजै ५ पी3 कामकी रुचि उपजै ६ पीछे मूर्छा होय ७ पीछे उन्माद उपजै ८ पीछै जीवनेका संदेह उपजै ९ पीछे मरण होय १० ऐसैं दश प्रकार अब्रह्म है । बहुरि नवविध ब्रह्मचर्य ऐसैं—नवकारणनित ब्रह्मचर्य बिगडे है तिनिकै नाम-स्त्री सेंवनेका अभिलाष १ स्त्रीका अंगका स्पर्शन २ पुष्ट रसका सेवन ३ स्त्रीकरि संसक्त वस्तुका सेवन शय्या आदिक ४ स्त्रीका मुख नेत्र आदिकनिका देखनां ५ स्त्रीका सत्कार पुरस्कार करनां ६ पहलैं स्त्रीका सेवन किया ताकी यादि करनां ८ आगामी स्त्रीसेवनका अभिलाष करनां ८ मनवांछित इष्ट विषयनिका सेवनां ९ ऐसैं नव प्रकार हैं तिनिका वर्जनां सो नवभेदरूप ब्रह्मचर्य है । अथवा मन वचन काय कृतकारित अनुमोदना करि ब्रह्मचर्य पालनां ऐसे भी नव प्रकार कहिये है । ऐसें करनां सो भी भाव शुद्ध होनेंका उपाय है ॥ ९८ ॥ ___ आगैं कहै है जो भावसहित मुनि है सो आराधनाका चतुष्कळू पावै है, भावविना सो भी संसारमैं भ्रमै है;----- गाथा-भावसहिदो य मुणिणो पावइ आग्रहणाचउकं च ।
भावरहिदो य मुणिवर भमइ चिरं दीहसंसारे ॥९९॥ संस्कृत--भावसहितश्च मुनीनः प्राप्नोति आराधनाचतुष्कं च ।
भावरहितश्च मुनिवर ! भ्रमति चिरं दीर्घसंसारे।।९९